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प्रवचनसार
अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं 1-13॥
अतिशयमात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तम् ।
अव्युच्छिन्नं च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥1-13॥ सामान्यार्थ - [शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां सुखं ] वीतराग-परमसामायिक चारित्र से उत्पन्न हुए जो अर्हन्त और सिद्ध हैं उनके ही ऐसा सुख विद्यमान है। कैसा है सुख? [अतिशयम् ] सबसे अधिक है - क्योंकि अनादिकाल से लेकर ऐसा सुख कभी इन्द्र वगैरह की पदवियों में भी अपूर्व आश्चर्य करने वाला परमानन्दरूप नहीं हुआ। फिर कैसा है? [ आत्मसमुत्थं ] अपने आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है, पराधीन नहीं है। फिर कैसा है? [अनौपम्यं ] उपमा से रहित है, अर्थात् तीन लोक में जिस सुख के बराबर दूसरा सुख नहीं है। इस सुख की अपेक्षा दूसरे सब सुख, दु:ख स्वरूप ही हैं। फिर कैसा है? [अनन्तं ] जिसका नाश नहीं होता, सदा ही नित्य है। फिर कैसा है? [अव्युच्छिन्नं च] और बाधारहित - हमेशा एकसा रहता है।
The souls engaged in pure-cognition (śuddhopayoga) enjoy supreme happiness engendered by the soul itself; this happiness is beyond the five senses - atindriya - unparalleled, infinite, and imperishable.
Explanatory Note: The Arhat and the Siddha enjoy supreme happiness produced out of the conduct-without-attachment (vītarāga cāritra), characterized by equanimity (sāmya). This happiness is extreme; even the lords of the celestial beings – Indra - never get to this kind of ineffable happiness. Produced by the soul itself, it is utterly independent. Not based on deliberation or reckoning, it is independent of the five senses (as such, termed atindriya) – touch, taste, smell, sight, and hearing. No happiness
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