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प्रवचनसार
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो 1-9॥
जीवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः । शुद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥1-9॥
सामान्यार्थ - [यदा जीवः ] जब यह जीव [शभेन अशभेन वा परिणमति ] शुभ अथवा अशुभ परिणामोंकर परिणमता है [शुभः अशुभः] तब यह शुभ अथवा अशुभ होता है। अर्थात् जब यह दान, पूजा व्रतादिरूप शुभ परिणामों से परिणमता है तब उन भावों के साथ तन्मय होता हुआ शुभ होता है और जब विषय, कषाय, अव्रतादिरूप अशुभ भावोंकर परिणत होता है तब उन भावों के साथ उन्हीं स्वरूप हो जाता है। जैसे स्फटिकमणि काले फूल का संयोग मिलने पर काली ही हो जाती है, क्योंकि स्फटिक का ऐसा ही परिणमन स्वभाव है, उसी प्रकार जीव का भी समझना। [शुद्धेन तदा शुद्धः हि भवति ] जब यह जीव आत्मा के वीतराग शुद्धभाव स्वरूप परिणमता है तब शुद्ध स्वयं ही होता है। जैसे स्फटिकमणि जब पुष्प के संबंध से रहित होती है तब अपने शुद्ध (निर्मल) भावरूप परिणमन करती है। ठीक उसी प्रकार आत्मा भी विकार-रहित हुआ शुद्ध होता है। [ परिणामस्वभावः ] इस प्रकार आत्मा का तीन प्रकार का परिणाम-स्वभाव जानना।
When the soul entertains auspicious (subha) or inauspicious (aśubha) dispositions, it becomes auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha). When the soul entertains pure (śuddha) disposition - conduct-without-attachment (vītarāga cāritra) – it turns into the pure (śuddha) soul. Thus, the soul, by nature (svabhāva), undergoes three kinds of modifications (pariņāma).
Explanatory Note: When the soul entertains auspicious (śubha) dispositions like charity, adoration of the Supreme Beings, and observance of vows, it becomes auspicious (śubha). When the soul
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