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Pravacanasāra
परिणमदि जेण दव्वं तकालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो 1-8॥
परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् । तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ॥1-8॥
सामान्यार्थ - [येन द्रव्यं परिणमति] जिस वक्त जिस स्वभाव से द्रव्य परिणमन करता है [तत्कालं तन्मयम् ] उस समय उसी स्वभावमय द्रव्य हो जाता है [इति प्रज्ञप्तम् ] ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जैसे लोहे का गोला जब आग में डाला जाता है तब उष्णरूप होकर परिणमता है अर्थात् उष्णपने से तन्मय हो जाता है, इसी तरह यह आत्मा जब शुभ, अशुभ, शुद्ध भावों में से जिस भावरूप परिणमता है, तब उस भाव से उसी स्वरूप होता है। [तस्मात् धर्मपरिणतः आत्मा] इस कारण वीतराग चारित्र (समताभाव) रूप धर्म से परिणमता यह आत्मा [ धर्मः मन्तव्यः] धर्म जानना।
Lord Jina has expounded that the particular state or modification of the substance is its nature (dharma) at that time. Therefore, the soul that is in the state of conduct-withoutattachment (vītarāga cāritra) or equanimity (sāmya) is to be known as its nature (svabhāva or dharma).
Explanatory Note: When an ironball is heated, it becomes one with heat. Similarly, when the soul entertains auspicious (subha), inauspicious (asubha) or pure (Suddha) dispositions, it becomes one with these dispositions. The soul (ātmā) is one with conduct (cāritra). The soul (ātmā) is conduct (căritra).
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