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प्रवचनसार
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो1-7॥
चारित्रं खलु धर्मो धर्मो यस्तत्साम्यमिति निर्दिष्टम् । मोहक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि साम्यम् ॥1-7॥
सामान्यार्थ - [खलु चारित्रं धर्मः] निश्चयकर अपने में अपने स्वरूप का आचरणरूप जो चारित्र है वह धर्म है अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव है वह धर्म है। इस कारण अपने स्वरूप के धारण करने से चारित्र का नाम धर्म कहा गया है। [ यः धर्मः तत्साम्यमिति निर्दिष्टम् ] जो धर्म है वही साम्यभाव है, ऐसा श्रीवीतरागदेव ने कहा है। वह साम्यभाव क्या है? [मोहक्षोभविहीनः आत्मनः परिणामः हि] मोह-क्षोभा रहित - उद्वेगपने (चंचलता) से रहित - आत्मा का जो परिणाम है वही [ साम्यम् ] साम्यभाव है।
For sure, to be stationed in own-nature (svabhāva) is conduct; this conduct is 'dharma'. The Omniscient Lord has expounded that the dharma, or conduct, is the disposition of equanimity (sāmya). And, equanimity is the soul's nature when it is rid of delusion (moha) and agitation (ksobha).
Explanatory Note: Equanimity (sāmya) is the untainted (nirvikāra) nature of the soul that is rid of delusion (moha) and agitation (ksobha) caused by the perception-deluding (darsanamohaniva) and the conduct-deluding (cāritramohaniva) karmas. It follows that conduct (cāritra) is own-nature (svabhāva or dharma); and right faith (samyagdarśana) is the root of dharma'.
1 मोह - दर्शनमोह / मिथ्यात्व, क्षोभ – चारित्रमोह / राग-द्वेष