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Pravacanasāra
entertains inauspicious (aśubha) dispositions like senseindulgence, passions, and non-observance of vows, it becomes inauspicious (aśubha). A coulourless crystal acquires black tinge when placed in contact with black flower; such is the nature of the crystal. It regains its colourless nature when separated from the black flower. The soul too gets to its pure (śuddha) nature when separated from the auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha) dispositions.
णत्थि विणा परिणाम अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो 1-10॥
नास्ति विना परिणाममर्थोऽर्थं विनेह परिणामः । द्रव्यगुणपर्ययस्थोऽर्थोऽस्तित्वनिर्वृत्तः ॥1-10॥
सामान्यार्थ - [इह ] इस लोक में [ परिणामं विना अर्थः नास्ति ] पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता है। क्योंकि द्रव्य किसी समय भी परिणमन किये बिना नहीं रहता, ऐसा नियम है। जो रहे तो गधे के सींग के समान असंभव समझना चाहिये। जैसे गोरस के परिणाम दूध, दही, घी, तक (छांछ) इत्यादि अनेक हैं, इन निजपरिणामों के बिना गोरस जुदा नहीं पाया जाता। जिस जगह ये परिणाम नहीं होते, उस जगह गोरस की भी सत्ता नहीं होती। उसी तरह परिणाम के बिना द्रव्य की सत्ता नहीं होती है। कोई ऐसा समझे कि द्रव्य के बिना परिणाम होता होगा सो भी नहीं होता [ अर्थं विना परिणामः ] द्रव्य के बिना परिणाम भी नहीं होता, क्योंकि परिणाम का आधार द्रव्य है। जो द्रव्य ही न हो तो परिणाम किसके आश्रय रहे? यदि गोरस ही न होवे तो दूध, दही, घी, तक (छांछ) इत्यादि पर्यायें कहाँ से होवें? इसी प्रकार द्रव्य के बिना परिणाम अपनी मौजूदगी को नहीं पा सकता है। तो कैसा पदार्थ अपने अस्तिपने को पा सकता है? [ द्रव्यगुणपर्ययस्थः अर्थः ] जो द्रव्य-गुण-पर्यायों में रहता है, वह पदार्थ [ अस्तित्वनिर्वृत्तः ] अस्तिपने (मौजूदगी) से सिद्ध होता है।
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