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पुण्य-पाप तत्त्व
सम्मत्तेण सुदणाणेण य विरदीए कसायनिग्गहगुणेहिं जो परिणदो सो पुण्णो।।
अर्थ-जो सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, विरति (महाव्रत-संयम), कषायनिग्रह रूप गुणों में परिणत होता है, वह पुण्य है।
-मूलाचार, गाथा 234
रयणतयरूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे। इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो।।
अर्थ-रत्नत्रय, आर्य (शुभ-श्रेष्ठ) कर्म, दया आदि धर्म इत्यादि भावों से युक्त होकर जो वर्तन करता है वह शुभ भाव होता है।
-रयणसार 65
'पुण' शुभे इति वचनात्' पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा
___ पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम्। अर्थात् 'पुण्य' शुभ है, जो आत्मा को शुभ करता है, पुनीत व पवित्र करता है वह पुण्य है।
-अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग 5, पृष्ठ 991 आशय यह है कि जिससे आत्मा पवित्र होती है वह पुण्य है। आत्मा प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से पवित्र होती है। दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य, विनम्रता, मृदुता, मैत्री, उपकार, सेवा आदि सभी सद्प्रवृत्तियों से आत्मा पवित्र होती है एवं संयम, संवर, तप, व्रतप्रत्याख्यान आदि त्याग रूप निवृत्ति से भी आत्मा पवित्र होती है। अतः पुण्य का उपार्जन प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से होता है।
सद्प्रवृत्तियाँ मन, वचन, तन तथा सद्व्यवहार से होती हैं, जैसा कि कहा है