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पुण्य-पाप तत्त्व
पुण्य के अनुभाग का सर्जन न तो योग से होता है और न कषाय से होता है। अपितु कषाय की कमी से होता है अर्थात् विशुद्धि भाव से, संयम, संवर, त्याग, तप रूप धर्म से, आत्म-शुद्धि से होता है। पुण्य आत्म-शुद्धि का फल है।
पुण्य प्रकृतियों का स्थिति-बंध पाप प्रकृतियों के स्थिति बंध की न्यूनाधिकता के साथ-साथ स्वत: न्यून व अधिक होता रहता है, क्योंकि तीन आयु को छोड़कर समस्त पाप-पुण्य कर्म प्रकृतियों के स्थिति बंध का समान रूप से कषाय ही कारण है। कषाय के घटने से सत्ता में स्थित समस्त पुण्य-पाप प्रकृतियों का स्थिति बंध स्वतः घटता है तथा कषाय के बढ़ने से बढ़ता है।
स्थिति बंध कषाय से होता है। अतः कषाय से जितना पाप प्रकृतियों का स्थिति बंध होता है उसकी तुलना में पुण्य प्रकृतियों का स्थिति बंध कम होता है तथा पाप के स्थिति बंध के क्षय के साथ पुण्य प्रकृतियों के स्थिति बंध का क्षय स्वतः हो जाता है। पुण्य के स्थिति-बंध के क्षय के लिए अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है।
पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी भी साधना से संभव नहीं है। साधना से तो पुण्य का अनुभाग बढ़ता ही है, अत: मुक्ति में जाने के लिए पुण्य के क्षय की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है पाप के क्षय की ।
यह नियम है कि जितना पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता जाता है उतनी ही उनकी स्थिति घटती जाती है। पुण्य की स्थिति बढ़ती