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________________ -----217 सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम --- की उत्पत्ति का कारण बनता है, अर्थात् नवीन अंतराय कर्म के बंध व उदय का कारण बनता है, जो दु:ख एवं दरिद्रता का हेतु ही होता है। कामना उत्पत्ति का कारण विषय-भोगों के सुखों का चिंतन करना है, जैसा कि गीता में कहा है ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। -गीता, 2.62 विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष का उन विषयों से संग (संबंध) हो जाता है। संग (संबंध-राग) से उन विषयों की प्राप्ति की कामना उत्पन्न होती है। कामना द्वारा इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति न होने से क्रोधक्षोभ उत्पन्न होता है अर्थात् कामना के उत्पन्न होते ही चित्त कुपित, अस्थिर, अशांत, क्षुभित हो जाता है, चित्त की शांति व स्थिरता भंग हो जाती है। पुरुष अपने निज स्वभाव से च्युत हो जाता है एवं यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब तक कामना का प्रवाह चलता रहता है। कामना का अभाव होने पर ही पुन: शांति, सुख व सम्पन्नता का अनुभव होता है। शांति आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव में अंतराल आना ही अंतराय है। साधु व वीतराग के भूमि, भवन, वाहन, रेडियो, टी.वी. आदि का न होना दु:ख का कारण व अंतराय कर्म का उदय नहीं है, क्योंकि साधु के इनकी कामना नहीं है। अत: साधु इनके न होने से अभाव का अनुभव नहीं करता है, जबकि इन्हीं वस्तुओं के भोग की कामना रखने वाले व्यक्ति के लिए इनका न मिलना, न होना दु:ख का हेतु व अंतराय कर्म का उदय है। तात्पर्य यह है कि कामना की उत्पत्ति अंतराय कर्म के उदय की सूचक है और कामना का अभाव होना, निष्काम होना, सुख का हेतु व अंतराय कर्म के क्षयोपशम का सूचक है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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