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- पुण्य-पाप तत्त्व शुभ भाव' कषाय के उदय से नहीं कषाय की कमी या मंदता से होते हैं, कारण कि कषाय का उदय, बंध, सत्ता सब अशुभ हैं, पाप हैं। कषाय के उदय रूप अशुभ भाव को शुभभाव मानना पाप को पुण्य मानना है। पाप को पुण्य समझना तात्त्विक भ्रान्ति है।
शुभ भाव कषाय में कमी होने से होते हैं। कषाय की कमी कर्मबंध का कारण नहीं है, प्रत्युत कर्म-क्षय का कारण है। वास्तविकता तो यह है कि शुभ भावों की विद्यमानता में जो कर्मबंध होते हैं वे शुभ भावों के साथ रहे हुए कषाय के उदय रूप अशुभ भावों के कारण से बँधते हैं, न कि शुभ भावों से। कषाय से ही सब कर्मों का स्थिति बंध होता है। स्थिति बंध होने पर ही कर्म ‘बंध' अवस्था को प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि कर्मों के स्थिति बंध का कारण कषाय रूप औदयिक भाव है न कि शुभ भाव। अत: विशुद्धि या शुभ भाव या क्षायोपशमिक भाव को कर्मबंध का कारण मानना युक्ति-युक्त नहीं है।
आगम व कर्म-सिद्धांत में घाती कर्मों की किसी भी प्रकृति को शुभ नहीं कहा है। समस्त प्रकृतियों को अशुभ कहा है। अत: कषाय भाव का उदय कभी कहीं पर भी शुभ माना ही नहीं गया है। इसके विपरीत कषाय में कमी होने को शुभ भाव माना गया है और इसी को क्षयोपशम भाव भी कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि शुभ भाव या क्षायोपशमिक भाव कषायों के, पाप प्रकृतियों के क्षयोपशम (कमी) से होते हैं, उदय से नहीं। यदि शुभ भाव कषायोदय से होते तो इन्हें औदयिक भाव कहा जाता, क्षायोपशमिक भाव नहीं कहा जाता। शुभ भावों के लिए प्रयुक्त 'क्षायोपशमिक' शब्द ही इसका स्पष्ट प्रमाण है कि 'शुभ भाव' कषाय व अशुभ कर्मों के उदय से न होकर उनके क्षयोपशम से होते हैं। अत: शुभ