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--- पुण्य-पाप तत्त्व आत्मा के गुण का घात करने वाले होने से इनकी समस्त प्रकृतियाँ पाप रूप ही होती हैं, इनकी एक भी प्रकृति पुण्य रूप नहीं होती है तथा ये आत्मा के लिए अहितकर ही होते हैं। अघाती कर्मों की प्रकृतियाँ पुण्य और पाप दोनों प्रकार की होती हैं। परंतु इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों के स्पर्धक न सर्वघाती होते हैं और न देशघाती होते हैं। अत: इनके उदय से जीव के कोई भी गुण प्रकट नहीं होता है। वीतराग केवलज्ञानी के उपघात-पराघात आदि पाप-पुण्य प्रकृतियों का उदय सदैव रहता है, परंतु इनके उदय से न तो उनके किसी गुण की हानि होती है और न इनके क्षय से किसी गुण की उपलब्धि ही होती है।
___ अघाती कर्मों के स्पर्धक घाती नहीं होने से इन स्पर्धकों के न्यूनाधिक उदय व क्षय होने से क्षायिक, औपशमिक एवं क्षायोपशमिक भाव नहीं होते हैं। ये तीनों भाव ही कर्म क्षय में हेतु होते हैं। ये तीनों भाव घाती कर्मों के क्षय, उपशम व क्षयोपशम से होते हैं यथा-घाती कर्मों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय के अभाव रूप क्षय व इन्हीं स्पर्धकों के सत्ता में उपशम होने से क्षयोपशम भाव होते हैं। घाती कर्मों की प्रकृतियों के देशघाती एवं सर्वघाती स्पर्धकों के पूर्ण रूप से उपशम होने से औपशमिक भाव एवं सम्पूर्ण रूप से क्षय होने से क्षायिक भाव होते हैं। इन्हीं तीनों भावों से पापकर्मों के स्थिति व अनुभाग का घात होता है, जो मुक्ति में हेतु है। यह नियम है कि जब पाप के अनुभाव का घात व क्षय होता है तो पुण्य के अनुभाव में वृद्धि होती है।
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