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पुण्य-पाप का परिणाम
त्याज्य है, पुण्य नहीं। यही कारण है कि पुण्य के साथ लगी हुई कामना में जितनी कमी आती जाती है अर्थात् जितनी निष्कामता बढ़ती जाती है उतना ही पुण्य का अनुभाग बढ़ता जाता है और पाप का अनुभाग व स्थिति घटते जाते हैं, पाप का संक्रमण पुण्य में होता जाता है। स्थिति बंध का व पाप का क्षय होना मुक्ति प्राप्ति का हेतु है। तात्पर्य यह है कि पुण्य का स्थिति बंध कामना से, कषाय से, सकामता से होता है और पुण्य के अनुभाग का सर्जन निष्कामता से होता है और पुण्य के अनुभाग का सर्जन निष्कामता से होता है। इसीलिए पुण्य-पाप का आधार इनके अनुभाव को माना गया है, स्थिति को नहीं। फल की ही प्रधानता होती है। अतः पुण्यपाप का ग्रहण फल के आधार पर ही किया जाता है प्रदेश व स्थिति बंध के आधार पर नहीं।
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पहले कह आए हैं कि कर्म का फल उनके अनुभाव से मिलता है और कर्म सिद्धांत में अनुभाव की न्यूनाधिकता का मापन उनके स्पर्धकों से होता है। स्पर्धकों की चार श्रेणियाँ होती हैं- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक । ये श्रेणियाँ क्रमशः अधिक से अधिक अनुभाग क सूचक हैं। पाप कर्मों के अनुभाव की वृद्धि अशुभ भाव से तथा पुण्य के अनुभाव की वृद्धि शुभ भाव व शुद्धभाव से होती है। शुभ व शुद्ध भाव कर्म क्षय के हेतु होने से मोक्ष प्रदायक हैं।
स्पर्धक तीन प्रकार के होते हैं - 1. सर्वघाती, 2. देशघाती, 3. अघाती। इनमें से सर्वघाती स्पर्धक आत्मा के गुण का पूर्ण घात करने वाले होते हैं, अत: इनके उदय से आत्म- गुण बिल्कुल प्रकट नहीं होता है। देशघाती स्पर्धक का उदय आत्मा के गुण को आंशिक घात करता है अर्थात् इनके उदय में आत्मा का गुण आंशिक रूप में प्रकट होता है । घाती कर्म