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---- पुण्य-पाप तत्त्व
रहित वीतरागता युक्त। इनमें से प्रथम रागादि दोषवर्द्धक प्रवृत्ति पाप रूप होने से त्याज्य ही है। द्वितीय रागादि दोषनाशक प्रवृत्ति साधना रूप होने से कर्म क्षय करने वाली है और तृतीय वीतराग-प्रवृत्ति नैसर्गिक होने से स्वत: सहज होती है। इनमें अंतिम दोनों प्रवृत्तियाँ सद्प्रवृत्तियाँ हैं, इनसे लेशमात्र भी हानि नहीं है। ये सद्प्रवृत्तियाँ त्याज्य नहीं है, उपादेय हैं। यहाँ तक कि साधक और वीतराग पुरुष (सयोगी केवली) का श्वास लेना, भाषण देना आदि भी सद्प्रवृत्तियाँ हैं। परंतु ये कर्म बंध की हेतु नहीं हैं कारण कि इनका उपयोग व उनका जीवन अपने भोग के लिए नहीं है, प्रत्युत संसार की सेवा के लिए है।
प्रवृत्ति मात्र कर्मबंध का कारण हो, ऐसी बात नहीं है। प्रवृत्ति कर्मों को क्षय करने वाली भी होती है अर्थात् प्रवृत्ति से कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस संबंध में भगवतीसूत्र का निम्नांकित कथन उल्लेखनीय है
समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? गोयमा! एगंत सो निज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ।
-भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 6 अर्थात् (गौतमस्वामी पूछते हैं) हे भंते! तथारूप श्रमण या माहण को प्रासुक अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार देने वाले श्रमणोपासक को क्या फल प्राप्त होता है? (उत्तर में भगवान फरमाते हैं) हे गौतम! श्रमणोपासक को एकांत निर्जरा रूप फल प्राप्त होता है, उसे पापकर्म नहीं लगता है।
यहाँ दान रूप प्रवृत्ति को एकांत निर्जरा का कारण बताया है अर्थात् दान रूप प्रवृत्ति को लेशमात्र भी पापरूप बंध का कारण नहीं