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अहिंसा, पुण्य और धर्म
तरह है जो ईंधन समाप्त होने पर स्वतः शांत एवं सांत हो जाता है। संवर या त्याग साधना भी है और साध्य भी है जबकि पुण्य साधन व साधना ही है, साध्य नहीं है। पुण्य विकार दूर करने के लिए औषधि के समान है जो विकार से मुक्ति पाने पर, स्वस्थ (निर्विकार) होने पर स्वत: छूट जाता है, जैसे कि यथाख्यात चारित्र भी स्वत: छूट जाता है।
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जब तक शरीर है तब तक प्राणी प्रवृत्ति किये बिना नहीं रह सकता। यदि तन व वचन से प्रवृत्ति करना रुक भी जाय तो मन में चिंतन, मनन, संकल्प, विकल्प, विचार आदि प्रवृत्तियाँ चलती ही रहती हैं। अत: साधक राग, द्वेष, मोह रूप रोग या विकार गलाने वाली, घटाने वाली सद्प्रवृत्ति नहीं करेगा तो राग या विकार वर्द्धक दुष्प्रवृत्ति होगी ही । सद्प्रवृत्तियों से वीतरागता तथा अक्षय, अव्याबाध, अनंत सुख की ओर गति होती है और दुष्प्रवृत्ति से दोषों और दुःखों की ओर गति होती है। अत: जबजब प्रवृत्ति करें सजगता, स्मृति, समिति-यतनापूर्वक करें, राग-द्वेष रहित होकर समभावपूर्वक-सामायिक रूप से करें।
मन-वचन व काया इन तीनों योगों में से किसी न किसी योग की प्रवृत्ति तो सयोगी वीतराग के भी होती रहती है। वे प्रवचन व उपदेश देते ही हैं। अतः प्रवृत्ति करना बुरा नहीं है और न बंधन का कारण है। बुरा है प्रवृत्ति के साथ लगा हुआ विषय - कषाय, राग-द्वेष। यही बंधन का कारण भी है। अतः प्रवृत्ति त्याज्य नहीं हैं, त्याज्य है विषय - कषाय । जिस प्रवृत्ति के साथ जितना विषय- कषाय भाव प्रगाढ़ है वह उतनी ही दुष्प्रवृत्ति है, पाप प्रवृत्ति है, जो त्याज्य है।
प्रवृत्ति के तीन रूप कहे जा सकते हैं - 1. राग-द्वेष आदि दोष वर्द्धक, 2. रागादि दोष नाशक (गालने वाला) और 3. राग-द्वेष आदि दोष