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________________ 108--- --- पुण्य-पाप तत्त्व आगे अहिंसा, पुण्य और धर्म प्रकरण में स्थानांग सूत्र के अनुसार मुक्ति प्राप्ति के चार द्वार बताये गये हैं-1. क्षमा, 2. मुक्ति (संतोष), 3. आर्जव (सरलता) और 4. मार्दव (विनम्रता)। ये चारों गुण क्रोध, लोभ, माया और मान इन चारों कषायों के क्षय, उपशम, क्षयोपशम (मंदता) से प्रकट होते हैं। ये चार कषाय चारित्र मोहनीय हैं। ये चार कषाय ही आत्मा को दूषित करने वाले, चारित्र का पतन करने वाले अर्थात् क्षमा, सरलता आदि आत्मा के दिव्य गुणों का घात करने वाले हैं। इन्हीं से समस्त पाप कर्मों का बंध होता है। इसके विपरीत इन कषायों में हानि होने से भावों में विशुद्धि होती है, जिससे आत्मा में आंशिक निर्दोषता बढ़ती है, आत्म-गुण आंशिक रूप में प्रकट होते हैं। आत्म गुणों का प्रकट होना धर्म है। परंतु आंशिक निर्दोषता से, आत्म गुणों के आंशिक रूप में प्रकट होने से आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है। मुक्ति की अनुभूति होती है पूर्ण निर्दोषता से। यही कारण है कि आंशिक निर्दोषता, आंशिक आत्मगुण सभी प्राणियों में होने पर भी उन्हें मुक्ति नहीं मिली। मुक्ति-प्राप्ति के लिए पूर्ण निर्दोषता की आवश्यकता होती है। पूर्ण निर्दोषता की अनुभूति क्षयोपशम भाव से नहीं होकर औपशमिक एवं क्षायिक स्वरूप की झलक मिलती है, आत्मा का सम्यग्दर्शन होता है। फिर शेष कषायों के पूर्ण उपशम से अथवा पूर्ण क्षय होने से वीतरागता की व मुक्ति की अनुभूति होती है, जैसा कि कहा है नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गुपत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 2 नत्थि-चरित्तं सम्मत्तविहणं। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 29
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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