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क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म
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कषाय जन्य सुख में (भोगों) दुःख का दर्शन कर उस विषय भोग के सुख से मुक्ति पाने के लिए की जाने वाली । इसी को आगम की भाषा में सम्यग्दर्शन युक्त साधना कहा जाता है।
इन दो प्रकार के संयम-त्याग आदि में से प्रथम प्रकार का संयम, त्याग आदि समय-समय पर सभी मानव प्राय: करते रहते हैं। यथा-मधुमेह के रोगी का शक्कर या मिठाई खाना छोड़ देना, हृदय रोगी का घृत, नमक खाना छोड़ देना, शाम को भोज में विशेष मिठाई खाने के सुख लेने के प्रलोभन से प्रात:काल का भोजन न करना, वस्तु के न मिलने से या भोगने की शक्ति न होने से भोग न करना या समाज की बुराई के भय से या राज्य के दण्ड के डर से किसी दुष्प्रवृत्ति से बचना आदि रूप में संयम व त्याग करना। यह प्रथम प्रकार का त्याग व संयम है। इसे साधना रूप संयम या त्याग की कोटि में नहीं गिना जा सकता, क्योंकि इसका लक्ष्य विषय सुख त्यागना नहीं है प्रत्युत उसे बनाये रखना है, उसका पोषण करना व प्राप्त करना है जो असंयम का ही द्योतक है; जबकि दूसरे प्रकार के संयम-त्याग का लक्ष्य विषय-विकार के भोग (सुख) से मुक्ति पाना है, यही सच्चा संयम व सच्चा त्याग है। आगम में इस दूसरे प्रकार के संयम व त्याग को ही संयम व त्याग की कोटि में लिया गया है।
इसी प्रकार पुण्य भी दो प्रकार का है। पहला मिथ्यादृष्टि कासहज-स्वाभाविक क्षायोपशमिक भाव से होने वाला, सामान्य पुण्य । यह दुःख के भय व सुख के प्रलोभन से युक्त होता है। दूसरा सम्यग्दृष्टि का क्षायिक व औपशमिक भाव से, संवर निर्जरा से होने वाला असामान्य पुण्य । यह भावात्मक पुण्य आध्यात्मिक विकास एवं मुक्ति का हेतु होता है। अत: यह धर्म रूप है।