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पाँचवाँ अध्ययन] हिन्दी पद्यानुवाद
वह वैसे पथ में गिर पड़े कहीं, या भ्रमवश वहाँ फिसल (रपट) जाये।
त्रस अथवा स्थावर प्राणी की, हिंसा विराधना हो जाये ।। अन्वयार्थ-से संजए = वह साधु । व = यदि । तत्थ पवडते = वहाँ गिरते हुए । व पक्खलंते = अथवा फिसलते हुए । तसे अदुव = त्रस अथवा । थावरे = स्थावर जीवों का । पाणभूयाई = विकलेन्द्रियादि प्राणियों का । हिंसेज्ज = हनन करेगा।
भावार्थ-कुमार्ग से जाने वाला साधु यदि वहाँ कभी गिर गया अथवा फिसल गया तो हाथ-पैर आदि को चोट लगने से आत्म-विराधना एवं विकलेन्द्रि-यादि प्राणी और वनस्पति अथवा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से संयम-विराधना का भागी होता है। ऐसे मार्ग में चलने से ईर्या समिति का पालन नहीं हो सकता।
तम्हा तेण ण गच्छेज्जा, संजए सुसमाहिए।
सइ अण्णेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
अतएव अन्य पथ के होते, आराधक मुनि उससे न चले।
बस स्थावर रक्षा के निमित्त, यतनापूर्वक पथ पर विचरे ।। अन्वयार्थ-तम्हा तेण = इसलिये उस मार्ग से । सुसमाहिए = उत्तम समाधिवाला । संजए = साधु । अण्णेण मग्गेण = अन्य मार्ग के । सइ = होते हए । ण गच्छेज्जा (गच्छिज्जा) = नहीं जावे। कदाचित् अन्य मार्ग न हो तो। जयमेव = यतना के साथ । परक्कमे = गमन करे।
भावार्थ-उन्मार्ग-गमन से आत्म-विराधना और संयम-विराधना का दोष लगना सम्भावित है, इसलिये उत्तम समाधिवाला साधु अच्छे मार्ग के होते हुए अन्य मार्ग से नहीं जावे । मार्गान्तर का अभाव होने पर चलना पड़े तो यतना से जावे, जिससे कि जीवों की हिंसा भी न हो और आत्म-विराधना से भी बचा जा सके।
इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं ।
ससरक्खेहिं पाएहिं, संजओ तं णइक्कमे ।।7।। हिन्दी पद्यानुवाद
रज सचित्तमय पैरों से, अंगार, भस्म भूसी चय को।
अथवा हो गोबर ढेर श्रमण, पथ में न लाँघ चले उनको ।। अन्वयार्थ-संजओ = संयमी साधु । इंगालं = कोयलों के ढेर का । छारियं रासिं = राख की ढेरी का । तुसरासिं = भूसे के ढेर का । च = और । गोमयं = गोबर का । ससरक्खेहि = सचित्त धूलि से भरे । पाएहिं = पैरों से । तं = उसका । णइक्कमे = अतिक्रमण नहीं करे।