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(पाँचवाँ अध्ययन
पिण्डैषणा (भिक्षैषणा-विधि)।
उपक्रम
पंचम अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है इसके 2 उद्देशक हैं, जिनमें 150 गाथाएँ हैं। प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वी के आहार-पानी की गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा की विधि बताई गई है। साधु भिक्षा के लिये कब, कैसे और कहाँ जावे, कैसे मार्ग से जावे, कैसे से नहीं, बतलाया गया है। जाने सम्बन्धी विधिनिषेध, आहार-ग्रहण के दोष, धौवन कैसा ले, कैसा नहीं, इसका वर्णन करते समय 'अहुणा धोयं' तत्काल के धोये पानी को लेने का निषेध किया है। आचारांग में धौवन के अन्यान्य प्रकार बतलाये गये हैं। गर्म जल और तथा प्रकार के निर्दोष आहार और अचित्त जल ग्रहण योग्य माना गया है। भिक्षा स्थल और उपाश्रय में आहार करने की विधि में, “इरियावहिया कायोत्सर्ग' गुरु के समक्ष आलोचना, स्वाध्याय-प्रस्थापन, स्वधर्मी साधुओं को निमन्त्रण आदि विचार मननीय हैं।
दूसरे उद्देशक की 50 गाथाओं में पात्र पोंछकर खाना, भिक्षा अपर्याप्त होने पर दूसरी बार जाने आदि की विधि का वर्णन किया गया है। यथाकाल भिक्षा आदि में जाने-आने का विधान, आहार-ग्रहण के शेष विधि-दोष एवं मादक पदार्थों का निषेध भी बताये गये हैं। तप-नियम की साधना में भी कपट करने वाले की दुर्गति होती है, इसका भी उल्लेख किया गया है। कहा गया है कि जो व्रत-नियम और तप का चोर होता है, वह मरकर किल्विषी देव के रूप में उत्पन्न होता है। जैसे
तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे णरे,
आयार भावतेणेय, कव्वइ देविकिव्विसं ।। दशवैकालिक 5/46।। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के पिण्डैषणा अध्ययन में विस्तार से पिण्डैषणा का वर्णन किया गया है, उसका यहाँ संक्षेप में कथन किया गया है। भिक्षु भिक्षैषणा की विधि को उत्कृष्ट संयत और ज्ञानवान से सीखकर संयमी और गुणवान होकर विचरे । उदाहरण के रूप में चूर्णिकार ने लिखा है कि एक दर्शनार्थी ने किसी कृशकाय साधु से पूछा-तपस्वी महाराज ! क्या अमुक तपस्वी आप ही हैं? महिमा-पूजा की आकांक्षा से प्रेरित होकर उस साधु ने अमुक तपस्वी नहीं होते हुए भी हाँ कह दी अथवा यह कह दिया कि साधु तपस्वी ही होता है। यह तपचोर का नमना है। वाकचोर-किसी संघाड़े में कोई धर्म कथा वाचक या वादी जैसा साधु