________________
76]
[दशवैकालिक सूत्र भावशस्त्र-दुर्भाव । जो लोग शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय की हिंसा करते हैं, वे हिंसा के दोष से सर्वथा विरत नहीं होते। ऐसा जानकर मेधावी पुरुष जलकाय का आरम्भ करता नहीं, दूसरों से कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता।
(3) अग्निकाय की हिंसा करने वाले, अग्निकायिक जीवों के साथ अन्य अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। जैसेपृथ्वी, तृण, गोबर और कूड़ा-कचरा आदि के आश्रित अनेक प्राणी रहते हैं, कुछ सम्पातिक-उड़ने वाले जीव, कीट, पतंगे आदि भी अग्नि का स्पर्श पाकर सिकुड़ जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। ऐसा जानकर बुद्धिमान मनुष्य अग्निशस्त्र का आरम्भ करते नहीं, दूसरों से कराते नहीं और करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते । अग्निकाय के आठ शस्त्र कहे हैं1. मिट्टी, 2. जल, 3. आर्द्र वनस्पति, 4. त्रसप्राणी, 5. स्वकाय, 6. परकाय, 7. तदुभय, 8. भावशस्त्र ।
(4) वनस्पति और मनुष्य की समानता-यह मनुष्य भी जन्म लेता है, वनस्पति भी जन्म लेती है। मनुष्य भी बढ़ता है, और वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य भी चेतना युक्त है, वनस्पति भी चेतनायुक्त है। मनुष्य शरीर के छिन्न होने पर म्लान हो जाता है, वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। मनुष्य भी आहार करता है, वनस्पति भी आहार करती है। मनुष्य का शरीर भी अनित्य है, वनस्पति का शरीर भी अनित्य है। मनुष्य का शरीर भी अशाश्वत है, वनस्पति का शरीर भी अशाश्वत है। मनुष्य का शरीर भी आहार से उपचित होता है, आहार के अभाव में अपचित क्षीण व दुर्बल होता है, वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार उपचित और अपचित होता है। मनुष्य शरीर भी अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करता है, वनस्पति शरीर भी अनेक अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
ऐसा जानकर बुद्धिमान व्यक्ति, वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करते नहीं, दूसरों से कराते नहीं और करने वालों का अनुमोदन भी करते नहीं।
(5) त्रसकाय-जो दिशा व विदिशाओं में सब ओर भयभीत हो, वहाँ से गमन करने में समर्थ होते हैं, उन्हें त्रस कहते हैं-त्रसजीव के आठ भेद बतलाये गये हैं
अण्डज-अण्डे से उत्पन्न होने वाले पक्षी, कबूतर, मयूर आदि । पोतज-चर्ममय थैलों से उत्पन्न होने वाले हाथी आदि। जरायुज-गर्भ वेष्टन से झिल्ली के साथ उत्पन्न होने वाले गाय, भैंस आदि । रसज-दही आदि में रस बदलने पर जो जीव उत्पन्न होते हैं, जैसे-कृमि आदि । संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होने वाले-जूं, लीख, खटमल आदि। सम्मूर्छिम-बाहरी हवा और ऊष्मा के संयोग से उत्पन्न होने वाले मक्खी, मच्छर, कीट आदि । उद्भिज्ज-भूमि फोड़कर निकलने वाले-कीट, पतंगें आदि।
औपपातिक-बिना गर्भ के उपपात रूप से सहसा उत्पन्न होने वाले देव, नारक आदि। अनके संयमी साधक जीव-हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं। फिर भी हम अनगार हैं, ऐसा कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों से त्रसकाय का आरम्भ करते हैं, उसके साथ अन्य अनेक प्राणियों की भी हिंसा करते हैं। भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य जीवन के लिये, मान-सम्मान और पूजा के लिये, जन्म-मरण और मुक्ति के लिये, दुःख का प्रतिकार करने के लिये, स्वयं भी त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है तो यह हिंसा उसके अहित के लिये, अबोधि के लिये होती है।