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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
मुनि जीवन में वन्दनीय, वह जन जन का बन जाता है। लेकिन गृहस्थ बन वही व्यक्ति, सब का अवन्द्य बन जाता है।। जब आ जाती वैसी स्थिति, तो वह वैसा ही दुःख पाता है।
जैसे कोई स्थान भ्रष्ट, सुर पृथ्वी पर पछताता है ।। अन्वयार्थ-जया = जब साधु संयम में रहता है तब तो । वंदिओ (वंदिमो) = वह सब लोगों का वन्दनीय । होइ = होता है। य = परन्तु । पच्छा = संयम छोड़ देने के बाद वही साधु । अवंदिओ (अवंदिमो) = अवन्दनीय । होइ = हो जाता है। ठाणाचुयादेवया व = जिस प्रकार इन्द्र द्वारा परित्यक्ता देवी पश्चात्ताप करती है उसी प्रकार । स = वह संयम से भ्रष्ट साधु । पच्छा = पीछे-बाद में। परितप्पड़ = पश्चात्ताप करता है।
भावार्थ-प्रव्रजित काल में साधु जन-जन का वन्दनीय होता है, पर वही जब उत्प्रव्रजित होकर गृहस्थी बनता है तब अवन्दनीय हो जाता है । तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे इन्द्र द्वारा परित्यक्ता देवी पश्चात्ताप करती है।
जया य पूइओ' होइ, पच्छा होइ अपूइओ।
राया य रज्ज पब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद
प्रव्रजित दशा में साधु पूज्य, सब जन का रहता है जग में। बनकर गृहस्थ नर-नारी, ना वैसा पूज्य रहे सब में ।। यह सोच-सोच परिताप बहुत, होने लगता उसके मन में।
ज्यों राज्य भ्रष्ट राजा चिन्तित, रहता है अपने जीवन में ।। अन्वयार्थ-जया = जब साधु संयम में रहता है तब तो। पूइओ (पूइमो) = सब लोगों द्वारा पूजनीय । होड = होता है। य = किन्त । पच्छा = संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद । अपडओ (अपडमो) अपूजनीय । होइ = हो जाता है। रज्जपब्भट्ठो राया य = जिस प्रकार राज्य-भ्रष्ट राजा पश्चाताप करता है, उसी प्रकार उस राज्यभ्रष्ट राजा की तरह । स = वह साधु । पच्छा = संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद। परितप्पड़ = पश्चात्ताप करता है।
भावार्थ-प्रव्रजित काल में साधु पूज्य होता है पर वही जब उत्प्रव्रजित होकर घर-गृहस्थी वाला बन जाता है, तो अपूज्य हो जाता है । तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य से भ्रष्ट राजा करता है।
जया य माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो।
सेट्ठिव्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पइ ।।5।। 1-2. पूइमो अपूईमो - पाठान्तर।