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प्रथम चूलिका]
[297 हिन्दी पद्यानुवाद
कोई अनार्य जब भोग हेतु से, धर्म भाव तज देता है। वह मर्ख भोग में मर्छित हो. आगे की सध खो देता है।। वह भूल बैठता भोगी बन, अपने कर्तव्य कर्म सारे ।
लगने लगते हैं भोग उसे, मीठे-मीठे प्यारे-प्यारे ।। अन्वयार्थ-य = और । जया = जब । अणज्जो = कोई अनार्य पुरुष । भोगकारणा = कामभोगों की इच्छा से । धम्म = धर्म को, धर्म-मार्ग को, संयम को, साधु जीवन को । चयइ = छोड़ता है तब । तत्थ = उन काम-भोगों में । मच्छिए = मर्छित यानी आसक्त बना हआ। से = वह । बाले = बाल-अज्ञानी। आयइं = आगत यानी भविष्य काल के लिये । नाव बुज्झइ = जरा-सा किंचित् मात्र भी विचार नहीं करता।
भावार्थ-अनार्य जब भोग के लिये धर्म को छोड़ता है, तब वह भोग में मूर्च्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता।
जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं ।
सव्वधम्मपरिब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
जब त्याग साधुता मुनि कोई, वापिस घर में आ जाता है। तब सब धर्मों से गिरकर के, पथ भ्रष्ट यहाँ हो जाता है ।। हो देव लोक वैभव से च्युत, जैसे परिताप इन्द्र करता।
उससे भी बढ़ परिताप यहाँ, वह गृहवासी मुनि है करता ।। अन्वयार्थ-वा = जिस प्रकार वंगलोक से च्यवकर-च्युत होकर । छमं = पृथ्वी पर, मृत्युलोक में । पडिओ = उत्पन्न होने वाला । इंदो = इन्द्र जिस प्रकार अपनी पूर्व ऋद्धि को याद करके पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार । जया = जब कोई साधु संयमी । ओहाविओ (ओहावियो) = संयम से-साधु जीवन से भ्रष्ट होकर, च्युत होकर । सव्वधम्म परिब्भट्टो = सब धर्मों से भ्रष्ट । होइ = हो जाता है तब । स = वह । पच्छा = पीछे-बाद में । परितप्पइ = पश्चात्ताप करता है।
भावार्थ-जब कोई साधु उत्प्रव्रजित होता है यानी गृहवास में प्रवेश करता है, तब वह सब धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है, जैसे देवलोक के इन्द्रासन एवं वैभव से च्युत होकर भूमितल पर गिरा हुआ इन्द्र करता है।
जया य वंदिओ' होइ, पच्छा होइ अवंदिओ। देवया व चुया ठाणा, स पच्छा परितप्पइ ।।3।।
1-2. वंदिमो अवंदिमो - पाठान्तर ।