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तृतीय वर्ग - आठवाँ अध्ययन ]
मुनि के मस्तक पर रख देता है, पक्खिवित्ता भीए तओ खिप्पामेव = रखकर भयभीत हुआ, वहाँ से शीघ्र, अवक्कमइ = ही हट जाता है, अवक्कमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए = हटकर जिस दिशा से आया था, तामेव दिसं पडिगए = उस ही दिशा में चला गया।
भावार्थ - इसलिये मुझे निश्चय ही गजसुकुमाल से इस वैर का बदला लेना चाहिये । इस प्रकार वह सोमिल सोचता है और सोचकर सब दिशाओं की ओर देखता है कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है । इस विचार से चारों ओर देखता हुआ पास के ही तालाब से वह थोड़ी गीली मिट्टी लेता है । गीली मिट्टी लेकर वहाँ आता है। वहाँ आकर गजसुकुमाल मुनि के सिर पर उस मिट्टी से चारों तरफ एक पाल बाँधता है।
पाल बाँधकर पास में ही कहीं जलती हुई चिता में से फूले हुए केसू के फूल के समान लाल-लाल खेर के अंगारों को किसी फूटे खप्पर में या किसी फूटे हुए मिट्टी के बरतन के टुकड़े (ठीकरे, या कोल्हू) में लेकर वह उन दहकते हुए अंगारों को उन गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रखने के बाद इस भय से कि कहीं उसे कोई देख न ले, भयभीत होकर वहाँ से शीघ्रतापूर्वक पीछे की ओर हटता हुआ भागता है । वहाँ से भागता हुआ वह सोमिल जिस ओर से आया था उसी ओर चला गया।
सूत्र 23
मूल
संस्कृत छाया
तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स सरीरयंसि वेयणा पाउन्भूया, उज्जला जाव दुरहियासा तए णं से गयसुकुमाले अणगारे सोमिलस्स माहणस्स मणसा वि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं जाव अहियासेइ । तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थज्झवसाणेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणं अणुप्पविट्ठस्स अणंते, अणुत्तरे जाव केवलवरणाण - दंसणे समुप्पण्णे तओ पच्छा सिद्धे जावप्पहीणे । तत्थ णं अहा संणिहिएहिं देवेहिं सम्मं आराहियंति कट्टु दिव्वे सुरभिगंधोदए वुट्ठे, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए चेलुक्खेवे क दिव्वे यगीय - गंधव्वणिणाए कए यावि होत्था ।
ततः खलु तस्य गजसुकुमालस्य अनगारस्य शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, उज्ज्वला यावत् दुरधिसहा, ततः खलु सः गजसुकुमालोऽनगारः सोमिलस्य ब्राह्मणस्य मनसा अपि अप्रदुष्यन् तां उज्ज्वलां यावत् (दुःसहां वेदनां) अधिसहते । ततः खलु तस्य गजसुकुमालस्य अनगारस्य तां उज्ज्वलां यावत् अधिसहमानस्य