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[अंतगडदसासूत्र है, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठणेमि = आकर भगवान नेमिनाथ को, तिक्खुत्तो आयाहिणं = तीन बार आदक्षिणा, पयाहिणं करेइ = प्रदक्षिणा करती है, करित्ता वंदइ नमसइ = करके वन्दन-नमस्कार करती है। वंदित्ता नमंसित्ता = वन्दन-नमस्कार करके, तमेव धम्मियं जाणप्पवरं = उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर, दुरुहइ, दुरुहित्ता = आरूढ होती है, आरूढ होकर, जेणेव बारवई नयरी = जहाँ पर द्वारावती नगरी है, तेणेव उवागच्छइ = वहाँ पर आती है, उवागच्छित्ता बारवई = वहाँ आकर द्वारावती, नयरी अणुप्पविसइ = नगरी में प्रवेश करती है। अणुप्पविसित्ता जेणेव = द्वारावती नगरी में प्रवेश करके, सए गिहे, जेणेव बाहिरिया = जहाँ पर अपना प्रासाद और बाहरी, उवट्ठाणसाला तेणेव = उपस्थान शाला (बैठक) है वहाँ, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता = पर आती है, आकर उस, धम्मियाओ जाणप्पवराओ = धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर से, पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता = उतरती है, उतरकर, जेणेव सए वासघरे = जहाँ स्वयं का निवास गृह है, जेणेव सए सयणिज्जे = जहाँ स्वयं का शयन स्थान है, तेणेव उवागच्छइ = वहाँ पर आती है, उवागच्छित्ता, सयंसि = वहाँ आकर अपनी, सयणिज्जंसि निसीयइ = शय्या पर बैठती है।
भावार्थ-इसके अनन्तर उस देवकी देवी ने अरिहंत अरिष्टनेमि के मुखारविन्द से इस प्रकार की यह रहस्यपूर्ण बात सुनकर तथा हृदयंगम कर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदया होकर अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके वे छहों मुनि जहाँ विराजमान थे, वहाँ आई। आकर वह उन छहों मुनियों को वंदन-नमस्कार करती है।
उन अनगारों को देखकर पुत्र-प्रेम के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। हर्ष के कारण उसकी आँखों में आँसू भर आये एवं अत्यन्त हर्ष के कारण शरीर फूलने से उसकी कंचुकी की कसें टूट गई और भुजाओं के आभूषण तथा हाथ की चूड़ियाँ तंग हो गईं। जिस प्रकार वर्षा की धारा के पड़ने से कदम्ब पुष्प एक साथ विकसित हो जाते हैं उसी प्रकार उसके शरीर के सभी रोम पुलकित हो गये। वह उन छहों मुनियों को पलक झपकाये बिना लगातार एक दृष्टि से देखती हुई चिरकाल तक निरखती ही रही।
तत्पश्चात् उसने छहों मुनियों को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके वह जहाँ भगवान अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ आई और आकर अर्हत् अरिष्टनेमि को तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार करती है, वंदन-नमस्कार करके उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होती है । रथारूढ़ होकर जहाँ द्वारिका नगरी है, वहाँ आती है और वहाँ आकर द्वारिका नगरी में प्रविष्ट होती है।
देवकी द्वारिका नगरी में प्रवेश कर जहाँ अपने प्रासाद के बाहर की उपस्थानशाला अर्थात् बैठक है वहाँ आती है। वहाँ आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरती है। नीचे उतर कर जहाँ अपना वासगृह है, जहाँ अपनी शय्या है, वहाँ आती है। वहाँ आकर अपनी शय्या पर बैठ जाती है।