________________
{ 32
[अंतगडदसासूत्र में प्रीति हुई (तथा वह) परम सौमनस्यवती हुई । हरिसवसविसप्पमाणहियया = हर्ष के कारण उसका हृदय नाचने लगा। आसणाओ अब्भुढेइ = आसन से उठती है, अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाई = उठकर, सात आठ कदम, अणुगच्छइ = सामने जाती है, अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो = सामने जाकर तीन बार, आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता = आदक्षिणा प्रदक्षिणा करती है प्रदक्षिणा करके, वंदइ नमसइ, वंदिता नमंसित्ता = वंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार करके, जेणेव भत्तघरे तेणेव = जहाँ रसोई घर था, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता = आती है, आकर, सीहकेसराणं मोयगाणं थालं भरेइ, भरित्ता = सिंहकेशरी मोदक का थाल भरती है भरकर, ते अणगारे पडिलाभेइ पडिलाभित्ता = उन अनगारों को प्रतिलाभित करती है, प्रतिलाभित करके, वंदइ, नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ = वंदन-नमस्कार करती है, वंदननमस्कार करके विसर्जित करती है।
भावार्थ-आर्य जम्बू-“हे पूज्य ! सातवें अध्ययन का भाव सुना, अब आठवें का क्या अधिकार है?" आर्य सुधर्मा-“इस प्रकार हे जम्बू ! उस काल, उस समय में द्वारिका नगरी में प्रथम अध्ययन में किये गये वर्णन के अनुसार यावत् अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान पधारे।" उस काल और उस समय में भगवान नेमिनाथ के अन्तेवासी-शिष्य छ: मुनि सहोदर भाई थे। वे समान आकार वाले, समान त्वचा और अवस्था में समान दिखने वाले थे, शरीर का रंग नीलकमल, सींग की गुली और अलसी के फूल जैसा था । श्रीवत्स से अंकित वक्ष और कुसुम के समान कोमल एवं कुंडल के समान धुंघराले बालों वाले वे सभी मुनि नल-कूवर के समान थे। तब (दीक्षित होने के पश्चात्) वे छहों मुनि जिस दिन मुंडित होकर अगार से अणगार धर्म में प्रव्रजित हुए, उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! हम चाहते हैं कि आपकी आज्ञा पाकर जीवन पर्यन्त निरन्तर बेले-बेले की तपस्या द्वारा अपनी-अपनी आत्मा को भावित (शुद्ध) करते हुए विचरण करें।” प्रभु ने कहा-“हे देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख प्राप्त हो वही कार्य करो, प्रमाद मत करो।” तब भगवान के ऐसा कहने पर वे छहों मुनि भगवान अरिष्टनेमि की आज्ञा पाकर जीवन भर के लिये बेले-बेले की तपस्या करते हुए यावत् विचरण करने लगे। तदनन्तर उन छहों मुनियों ने अन्यदा किसी समय, बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय की और गौतम स्वामी के समान यावत् बोले-“हे भगवन् ! हम बेले की तपस्या के पारणे में आपकी आज्ञा पाकर दो-दो के तीन संघाड़ों से द्वारिका नगरी में यावत् भिक्षा हेतु भ्रमण करना चाहते हैं।'
तब उन छहों मुनियों ने अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा पाकर प्रभु को वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर वे भगवान अरिष्टनेमि के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान करते हैं । उद्यान से निकल कर वे दो-दो के तीन संघाटकों में सहज गति से यावत् भ्रमण करने लगे। उन तीन संघाटकों (संघाड़ों) में से एक संघाड़ा द्वारिका नगरी के ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में, एक घर से दूसरे घर, भिक्षाचर्या के हेतु भ्रमण करता