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{VI} (2) इस शास्त्र में प्रत्येक साधक के नगर, उद्यान, चैत्य, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऋद्धि, पाणिग्रहण, प्रीतिदान, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षाकाल, श्रुतग्रहण, तपोपधान, संलेखना एवं अंतक्रिया स्थान का उल्लेख किया गया है। इसमें वर्णित साधकों में स्त्री, पुरुष, बालक, युवा, वृद्ध, सामान्य जन एवं विशिष्टजन सभी तरह के हैं। इसमें एक ओर राजा, राजकुमार, राजरानियों का वर्णन है तो दूसरी ओर सामान्य मालाकार का भी वर्णन हैं। यह सूत्र न तो अतिविशाल है न अतिलघु। इसमें ऐसे ही साधकों की जीवन गाथा गायी गई है जिन्होंने अपनी ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप की साधना से अष्टकर्मों का क्षय कर मुक्ति लक्ष्मी का वरण किया है। यह सूत्र सहज, सरल, सुबोध, सुगम्य भाषा शैली में सामान्यजन को आत्म साधना की प्रेरणा देने वाला होने के साथ ही आठ दिन के सीमित समय में इसका वाचन पूरा किया जा सकता है। अत: स्थानकवासी परम्परा में पर्वाधिराज पर्युषण के 8 दिवसों में इसका वाचन किये जाने की मंगलमयी परम्परा है।
__(3) शास्त्रों में अलग-अलग शैलियों से समझाने का प्रयास हुआ है, यह शास्त्र श्रुतशैली में है श्रुत अर्थात् श्रवण के द्वारा ज्ञान प्राप्ति। इसमें गुरु-शिष्य के संवाद के माध्यम से भव्य-जीवों को मोक्ष मार्ग से अवगत कराया गया है। सर्वप्रथम तो शासनपति भगवान महावीर के द्वारा गौतम के माध्यम से भव्यजीवों को प्रतिबोधित किया गया है फिर प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा ने इस सूत्र का बोध अपने शिष्य जम्बू को भगवान महावीर द्वारा गणधरगौतम को दिये गये ज्ञान दान के माध्यम से उस सूत्र का ज्ञान दिया है, वर्तमान में उपलब्ध आगमों की शैली से ऐसा प्रतीत होता है कि इस सूत्र का बोध आर्य प्रभव ने अपने शिष्यों को श्रुत जिज्ञासा करने पर दिया।
(4) इस शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है-मोक्ष, मोक्षमार्ग व उसके साधनों की उपादेयता तथा संसार व संसार के कारणों की हेयता। इसके परम पावन चरित्रों के माध्यम से संयम-साधना की सर्वोच्चता, तप-संयमअहिंसा समन्वित साधना के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप, साधकों की उत्कृष्ट साधना, श्रावक के दर्शनाचार, कर्मवाद, पुरुषार्थवाद की महत्ता के दिग्दर्शन के साथ धर्म दलाली के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है। राजा के कर्त्तव्य एवं अमर्यादित अनुग्रह के दुष्परिणामों (6 गोठिला पुरुष) का भी परिचय कराया गया है।
(5) इस शास्त्र की रचना शैली विनय धर्म के आचरण का संदेश देती है। गुरु के समक्ष कैसे बैठना, कैसे पृच्छा करना व गुरु द्वारा दिये गये श्रुतज्ञान को कैसे धारण करना, स्वीकार करना व अपनी स्वीकृति व्यक्त करना आदि का ज्ञान यह सूत्र प्रदान करता है।
(6) प्रारम्भिक अध्ययन साधकों के विपुल वैभव का वर्णन करते हुए सांसारिक वैभव चाहे कितना भी क्यों न हो, हेय है, त्याज्य है, जिन्होंने भी मोक्षमार्ग स्वीकार किया वे सभी अकिंचन बनकर आगे बढ़े, इस तथ्य को प्रतिष्ठापित करते हैं।