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[अंतगडदसासूत्र राजकीय अव्यवस्था को देखकर मन्त्रिमण्डल ने राजधानी बदलने का सुझाव दिया। नृप कोणिक की अनुमति से भूमि शास्त्रियों को उपयुक्त भूमि ढूँढने की आज्ञा दी। वे भूमि का अवलोकन करते-करते थक गये और विश्राम हेतु एक चम्पा वृक्ष के नीचे बैठ गये। वह स्थान उनको अति मोहक लगा । स्थान इतना लुभावना प्रतीत हुआ कि वहाँ से उठने का उनका मन ही नहीं करता था । किसी शकुन पूर्ति के लिये उन्होंने जमीन खोदी तो वहाँ पर अपरिमित स्वर्ण मुद्रा और माणिक्य का भण्डार मिला। उसी द्रव्य से वहीं नगरी का निर्माण किया गया और चम्पा वृक्ष के पास होने से नगरी का नाम "चम्पानगरी' रखा गया। राजा कोणिक ने इसी चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनाया। (कथा भाग से)
प्रश्न 71. द्वारिका नगरी का निर्माण कैसे हुआ ?
उत्तर-मथुरा नरेश कंस के वध से क्षुभित होकर उसकी पत्नी जीवयशा अपने पिता जरासन्ध के पास राजगृही गई और पति-वध के हृदय विदारक समाचार सुनाये । समाचार सुनकर प्रतिवासुदेव जरासन्ध ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर दूत को यह कहकर शोरीपुर भेजा कि यादव नृप अगर अपनी सुरक्षा के इच्छुक हों तो कालिया, गोरिया (श्रीकृष्ण और बलदेव) को तत्काल मेरे पास भेज देवें, वरना शौरीपुर को नष्ट कर दिया जावेगा। महाराज समुद्र विजय ने दूत को तिरस्कार करके लौटा दिया, और अपने लघु बान्धवों के साथ भावी संकट से निपटने के लिये मन्त्रणा करने लगे। उन्होंने बतलाया कि राजराजेश्वर जरासन्ध वर्तमान में अति बलशाली है, और अपने पास साधन सीमित हैं। इस दरम्यान राज्य के ज्योतिषी ने चिन्ता का कारण ज्ञात होने पर अर्ज किया कि आप निर्भय रहें। जिस कुल में भावी तीर्थङ्कर, वासुदेव और बलदेव ऐसे तीन पदवीधर हैं, उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता । ज्योतिषी ने आगे बतलाया कि यहाँ की भूमि यादव परिवार के लिए अनुकूल नहीं है।
इसलिये आप सपरिवार दक्षिण दिशा की ओर जावें, और जहाँ सत्यभामा पुत्ररत्न को जन्म देवे, वहीं पर अपना झण्डा गाड़ देवें, वहीं से यादव वंश का अभ्युदय होगा। राज्य ज्योतिषी के कथानानुसार महाराज समुद्र विजयजी अपने समस्त परिवार सहित शौरीपुर से सौराष्ट्र में लवण-समुद्र के किनारे पहुँचे, जहाँ सत्यभामा ने भानुकँवर का प्रसव किया। श्रीकृष्ण ने तेले के तप की आराधना की जिसके फलस्वरूप समुद्र का अधिष्ठित देव उपस्थित हुआ। देवताओं के स्वामी इन्द्र की आज्ञानुसार कुबेर देव ने उसी स्थान पर 12 योजन लम्बी और 9 योजन चौड़ी नगरी का मय अनेक महल, भवन, दुकानें उद्यान आदि का निर्माण स्वर्ण की ईंटों से कराया। उस नगरी के अनेक द्वार और उपद्वार होने से उनका नाम द्वारिका नगरी रखा गया । कतिपय विद्वान् इस प्रकार भी कहते हैं कि इस नगर के बारह स्वामी-दश दशारण, राजा कृष्ण और बलदेव होने से बारापति से द्वारामति द्वारिका' कहलाई।
प्रश्न 73. काली आदि दसों रानियों को वैराग्य उत्पन्न कैसे हुआ?
उत्तर-मगधेश्वर श्रेणिक ने अपने जीवन काल में, चेलणा के लघुपुत्र हल और विहल कुमार को देवनामी हार और सिंचानक हाथी उपहार के रूप में दे दिया। वे कुमार अपने अन्त:पुर के साथ इन दोनों वस्तुओं का उपभोग करते हुए आनन्द से रह रहे थे। चम्पा के निवासी उनके सुखी जीवन, हार और हाथी के उपभोग की प्रशंसा करते रहते थे कि हल, विहल कुमार राज्य लक्ष्मी का सुख भोग रहे हैं। राजा कोणिक तो सिर्फ राज्य का भार ढोता है। कोणिक की पटरानी पद्मावती ने जनता की बात को सुनकर कोणिक से निवेदन किया-ये दोनों वस्तुएँ हार व हाथी तो आपको शोभा देती हैं। कोणिक ने उत्तर दिया-पिताजी ने ये मेरे छोटे भाइयों को उपहार रूप में दी हैं, सो उनसे माँगना अनुचित है। परन्तु पटरानी के अति आग्रह से उसने हल, विहल कुमार को इन दोनों वस्तुओं को लौटाने के लिये आज्ञा दी