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[ अंतगडदसासूत्र
साधारण लोग रूप पर मुग्ध होकर हीनकुलों के साथ भी मोह भावना से सम्बन्ध करने लगे, तब उस पर कड़ाई से प्रतिबन्ध करना आवश्यक हो गया हो। उचित समझ कर विक्रम राजा ने जातीय व्यवस्था का निर्धारण किया। जो भी हो स्वेच्छाचार से कुलशील का बिना विचार किये इधर-उधर संबंध करना अहितकर है। पूर्व समय में न स्वेच्छाचार इतना बढ़ा था और न जातीय बंधन का ही आग्रह था। योग्यता और प्रेम से एक जाति का अन्य जाति में भी संबंध होता था। समान शील और संस्कार का प्रायः ध्यान रखा जाता था।
प्रश्न 41. द्वारिका का विनाश क्यों हुआ और नगरी के विनाश में निमित्त न बनूँ, इस विचार से द्वैपायन ऋषि द्वारिका नगर छोड़कर बहुत समय तक दूर ही घूमते रहे । फिर उसको विनाश में निमित्त क्यों माना १
उत्तर- सर्व विदित बात है कि संसार के दृश्यमान् पदार्थ सब आगे-पीछे नाशवान हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण ने देव-निर्मित द्वारिका को भी नाशवान समझकर नाश के कारणों को जानना चाहा। भगवान ने द्वैपायन के द्वारा जब द्वारिका नगरी का नाश बतलाया तब श्रीकृष्ण ने नगरी के संरक्षण हेतु यह घोषणा करवाई कि कोई भी द्वारिकावासी यदि नगरी का कुशल चाहता है, तो मद्य-माँस का सेवन नहीं करे। और नश्वर तन से लाभ लेने तथा अशुभ कर्म को काटने के लिए शक्तिपूर्वक कुछ न कुछ तप नियम का साधन अवश्य करे। मद्य के कारण द्वारिका का दाह होगा। इसलिए नगरी का सारा मद्य इकट्ठा करवा कर जंगल में फिंकवा दिया गया । द्वैपायन ऋषि वहीं नगरी के बाहर आश्रम में कठोर तप कर रहा था । बहुत दिनों के पश्चात् एक दिन यादव कुमार वन-विहार को निकले और जंगल में भूल से रहे हुए मद्य घट को देखकर पान कर गये । मद्य का स्वभाव सहज ही भाव भुलाने का होता है, यादव कुमार नशे में उन्मत्त होकर नगर की ओर चले तो रास्ते में द्वैपायन ऋषि को देखकर क्रुद्ध होकर वे कंकर पत्थर फेंकने लगे और बोले यही बेचारा द्वैपायन हमारी द्वारिका को जलायेगा । द्वैपायन ने कुमारों द्वारा पुनः पुनः किये गये अपमान और अवहेलना वचन से क्रुद्ध होकर निदान कर लिया कि मेरी तपस्या का फल हो,
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तो मैं यादव सहित द्वारिका को जलाने वाला बनूँ। कुमारों का नशा उतरा, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से आकर सारी बात कह सुनायी। कृष्ण भी बलदेव के साथ द्वैपायन के पास गये और उनको शान्त करते हुए निदान नहीं करने का निवेदन करने लगे । द्वैपायन ने कहा- "मैंने निर्णय कर लिया है। केवल तुम दोनों भाइयों को नहीं मारूँगा। यह वचन देता हूँ।”
अन्त समय में आयु पूर्ण कर वह द्वैपायन अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ और वैरानुबन्ध के कारण नगरी परद्वेष करने लगा । किन्तु नगरी में आयंबिल तप चल रहा था। कोई उपवास, कोई बेला तो कोई आयंबिल जरूर करता । तप के प्रभाव से इधर-उधर चक्कर काटने पर भी देव का जोर नहीं चला और पूरे ग्यारह वर्ष बीत गये। जब लोगों ने देखा कि अब तो समय टल गया है, बस मन-माने मद्य पीने लगे और तप का साधन बन्द कर दिया। देव अपने वैर वसूली का समय देख रहा था। ज्योंही तपस्या बंद हुई भूमि-कंप, उल्कापात आदि उपद्रव होने लगे और नगरी पर अग्निवर्षा शुरु हो गई। रोने तथा चिल्लाने पर भी किसी को कोई सहायता देने वाला नहीं मिला। कृष्ण और बलभद्र बड़े दुःखित हृदय से माता-पिता को निकालने लगे। वसुदेवजी एवं देवकी को रथ में बिठाकर दोनों भाई रथ को खींचते हुए चले, पर दैववशात् उनको भी नहीं निकाल सके। आखिर अनशन कर माता-पिता ने द्वैपायन द्वारा की गई अग्नि वर्षा में जलकर आयुष्य पूर्ण किया और स्वर्ग के अधिकारी बने।
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प्रश्न 42 स्थानांग सूत्र स्थान दस के अनुसार अन्तकृदशा सूत्र में 1 नमि, 2. मातंग, 3. सोमिल, 4. रामगुप्त, 5. सुदर्शन, 6 जमालि, 7. भगाली, 8. किंकम, 9. चिल्लक और 10. अम्बड़-पुत्र फाल, इन दस जीवों का वर्णन होना चाहिए, वह इस अन्तगड़ सूत्र में क्यों नहीं ?