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प्रश्नोत्तर]
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दशाश्रुतस्कन्ध में निदान करने के नौ रूप बतलाये हैं-जो इस प्रकार हैं:कोई साधु किसी समृद्धिशाली पुरुष (चक्रवर्ती) को देखकर उसकी ऋद्धि प्राप्त करने के लिये निदान करता है। कोई साध्वी किसी ऋद्धिवन्त स्त्री (श्री देवी) को देखकर उसके सुख प्राप्ति हेतु निदान करती है। कोई साधु पुरुषपना दुःखदायी है, अतः स्त्री बनने के लिये निदान करता है। कोई साध्वी स्त्रीपने की कठिनाई को देखकर पुरुष के सुखों का भोग करने के लिये निदान करती है। कोई मनुष्य के काम भोगों को अध्रुव, अशाश्वत व अनित्य समझकर देवरूप में उत्पन्न होने तथा दैवीय सुख भोगने के लिये निदान करते हैं। देव भव में अपनी देवी को वश में करके या वैक्रिय रूप बना कर सुख भोगने के लिये निदान करना। देव भव में अपनी देवी के साथ सुख भोगने के लिये निदान करना। अगले जन्म में श्रावक बनने हेतु निदान करना। अगले जन्म में साधु बनने हेतु निदान करना ।
प्रथम चार निदानों वाला जीव केवली प्ररूपित धर्म नहीं सुन सकता, क्योंकि इनका फल पाप रूप होता है तथा नरक में दुःख भोगना पड़ता है। पाँचवें निदान वाला जीव धर्म श्रवण कर सकता है किन्तु दुर्लभ बोधि होता है। छठे निदान वाला जीव जिन धर्म को सुनकर, समझकर भी अन्य धर्म में रुचि रखता है। सातवें निदान वाला, दर्शन श्रावक एवं आठवें निदान वाला, श्रावक हो सकता है; परन्तु संयम अंगीकार नहीं कर पाता। इसी तरह साधु निदान वाला संयमी होकर भी यथाख्यात चारित्र को प्राप्त न कर सकने के कारण सिद्ध-बुद्ध और मुक्त नहीं हो सकता।
प्रश्न 12. भिक्षु प्रतिमा कौन धारण कर सकता है ?
उत्तर-प्रवचन सारोद्धार के 67वें द्वार करण सत्तरि के अंतर्गत भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का वर्णन हुआ है। व्याख्या साहित्य के आधार से प्रायः प्रायः भिक्षु की बारह प्रतिमा की आराधना के लिए पूर्वो का ज्ञान व 20 वर्ष की संयम पर्याय की अनिवार्यता अंतगड़दसा सूत्र के विवेचन, प्रश्नोत्तर, दशाश्रुतस्कंध की सातवीं दशा के विवेचन, तैंतीस बोल के बारहवें बोल के विवेचन में देखने को मिलती है। जैन संस्कृति रक्षक संघ सैलाना से प्रकाशित भगवती सूत्र भाग-7 के पृष्ठ 25 पर “भिक्षु प्रतिमा लगभग 30 वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले (शायद मुद्रण की गलती हो) और पूर्वधर आदि विशेषता वाले साधु ही स्वीकार कर सकते हैं" ऐसा लिखा है। युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म.सा. द्वारा सम्पादित दशाश्रुतस्कंध की 7वीं दशा में पृष्ठ 64 पर “20 वर्ष की संयम साधना, 29 वर्ष की आयु, जघन्य 9वें पूर्व की तीसरी वस्तु का ज्ञान आवश्यक है" ऐसा लिखा है। अन्यत्र भी ऐसे ही कथन देखने को मिलते हैं। परिहार विशुद्धि तप, जिनकल्प आदि के आराधन में जघन्य 9वें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु व उत्कृष्ट दस पूर्व के ज्ञान का स्पष्टोल्लेख भगवती सूत्र शतक 25 उद्देशक 6 (परिहार विशुद्धि के लिए) विशेषावश्यक भाष्य (जिनकल्प के लिए) में वर्णित है, वैसा स्पष्ट विधान भिक्षु प्रतिमा के लिए आगमों में देखने को नहीं मिलता। इसके विपरीत आगम के अनेक स्थल, पूर्वो के ज्ञान या 20 वर्ष की पर्याय की अनिवार्यता का खण्डन करते हैं। जो इस प्रकार हैं1. ज्ञाताधर्मकथांग अध्ययन 1 मेघकुमारजी, सूत्र 34 (सुत्तागमे पृष्ठ 1101) सामाइयमाइयाणि एक्कारस अंगाई
अहिज्जइ। सूत्र 37 (पृष्ठ 1109) सामाइयमाइयाहि एक्कारस अंगाइ अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई दुवालस वरिसाइं सामण्णपरियागं
पाउणित्ता।