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[अंतगडदसासूत्र 'अंधकवृष्णि राजा के 10 सहोदर पुत्र तो राजा बन जाने के कारण एवं बलदेव वासुदेव के वंश के होने के कारण दस दशाह के रूप में प्रसिद्ध हए. शेष धारिणी आदि अनेक रानियों से अनेक पत्र हए-वे कमार पद से ही दीक्षित हो गये द्वितीय वर्ग में वर्णित आठ कुमार दसवें वृष्णि कुमार के पुत्र थे। (प्रथम वर्ग के दसवें अध्ययन विष्णु का कहीं-कहीं पर 'वृष्णि' पाठांतर भी मिलता है।) वृष्णि कुमार राजा नहीं बनने से उनको द्वितीय वर्ग में राजा नहीं बताया गया है। इस प्रकार दोनों वर्गों के अठारह कुमारों को सहोदर भाई नहीं मानने की तरफ ही ज्यादा झुकाव होता है। बाकी तो विशिष्ट ज्ञानी कहे वही प्रमाण है।
प्रश्न 9. श्री कृष्ण ने दारिका नगरी के विनाश का कारण भगवान से क्यों पूछा?
उत्तर-तीन खण्ड के अधिपति श्री कृष्ण ने जब अपनी ही नगरी में निर्ग्रन्थ साधु, अपने ही छोटे-भाई और वह भी भगवान अरिष्टनेमि के अन्तेवासी की अकाल मृत्यु पर विचार किया तो उन्हें अपनी पुण्यवानी में मन्दता होती दिखाई दी। उन्होंने सोचा-इन दिनों जब मेरे भाई की यह दशा हो गई तो अगले दिनों मेरी तथा मेरी इस सुनहरी नगरी की और इस विशाल वैभव की क्या दशा होगी? अनुमान है-इन चिन्ताओं से प्रेरित होकर भगवान से द्वारिका के विनाश का कारण पूछा हो।
प्रश्न 10. सुरा, अग्नि एवं दैपायन ऋषि द्वारिका विनाश के कारण क्यों और कैसे बने ?
उत्तर-द्वैपायन ऋषि ने अपने द्वारा द्वारिका के विनाश का भगवत् वचन सुना तो इस निमित्त से बचने के लिए नगरी के बाहर आश्रम में रहने लगा । श्रीकृष्ण ने सुरा (मदिरा) को भी नाश का कारण जानकर बाहर फिंकवा दिया । एक दिन कुछ यादवों को खेलते-खेलते प्यास लगी, वे पानी की तलाश में उसी आश्रम की तरफ आ गये तथा गड्ढों में भरी शराब पी ली, कुछ आगे बढ़ने पर द्वैपायन ऋषि ध्यान करता दिखाई दिया। नशे में उन्होंने मरे हुए सर्प को उठाकर द्वैपायन ऋषि पर डाल दिया तथा उन्हें खूब परेशान किया, तब क्रोधित होकर द्वैपायन ऋषि ने द्वारिका विनाश का निदान कर लिया।
श्रीकृष्ण एवं बलभद्र की अनुनय-विनय से उन दोनों को नहीं जलाने का वचन दिया। कृष्ण ने द्वारिका विनाश को बचाने का उपाय तप को समझकर घर-घर में आयंबिलादि तप करवाना आरम्भ करा दिया । द्वैपायन ऋषि अकाम निर्जरा के कारण मर कर अग्निकुमार जाति का देव बना । वह अपना पूर्व भव का उपयोग लगाकर क्रोधित हो गया, किन्तु तप के प्रभाव से बारह वर्ष तक द्वारिका को न जला सका।
द्वारिका में बारहवें वर्ष में तपाराधना बहुत मन्द हो गई। अन्त में तप का प्रभाव न रहने से संवर्तक वायु चलाना शुरू कर दिया। जिससे आस-पास में तृण, काष्ठादि का हवा से संयोग होने से द्वारिका तेजी से जलने लगी। छह मास तक जलती रही। निकट में समुद्र का अपार जल भी उसे बुझाने के काम न आ सका।
प्रश्न 11. अर्हन्त अरिष्टनेमि ने फरमाया कि सभी वासुदेव निदान कृत होते हैं। अत: वे सामायिक संयम आदि व्रताराधन की क्रियाएँ आचरित नहीं कर सकते, हे भंते! निदान किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का है एवं उसके क्या-क्या फल होते हैं ?
उत्तर-निदान एक पारिभाषिक शब्द है। जब मोक्ष मार्ग का साधक अपने जीवन भर की तपस्या का फल “मुझे अमुक प्रकार की सांसारिक ऋद्धि मिले" ऐसी चाह-इच्छा करता है तो उसे निदान कहते हैं । अर्थात् “तप के उपलक्ष्य में भौतिक ऋद्धि प्राप्त करने का संकल्प" निदान है। दूसरे शब्दों में निदान, हाथी के मूल्य वाली वस्तु को एक कोड़ी में बेच
देना है।
निदान कल्याण-साधना का बाधक है। जब तक उसकी पूर्ति नहीं होती तब तक मोक्ष प्राप्ति तो क्या सम्यक्त्व मिलना भी दुर्लभ है। वह महा इच्छा वाला होने से महारम्भी, अधर्मी होता है। जिससे संसार में भटकता है।