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सूक्तियाँ ]
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परिशिष्ट 1
सूक्तियाँ
1. जहा दढपइण्णे जाव गिरिकंदर-मल्लीणे चंपकवरपायवे सुहंसुहेणं परिवड्डइ-दृढ़ प्रतिज्ञ के
समान पर्वत की गुफा में चम्पक वृक्ष पर चढ़ी हुई लता के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगा। 2. अहासुहं देवाणुप्पिया। मा पडिबंधं करेह-हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। धर्मकार्य में
विलम्ब मत करो। 3. जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए-जिस दिशा से आया उसी दिशा में वापस लौट गया। 4. एगदिवसमपि रज्जसिरिं पासित्तए-एक दिन के लिए भी तुम्हारी राज्यश्री को देखना चाहते हैं। 5. मणसा वि अप्पदुस्समाणे-मन से भी द्वेष न करते हुए। 6. साहिज्जे दिण्णे-सहायता दी। 7. अहण्णं अधण्णे अकयपुण्णे रज्जे य जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोएसु मुच्छिए-मैं
अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ जो राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्च्छित हूँ। 8. से नूणं कण्हा। अयमढे समझे। हंता अत्थि-निश्चय ही हे कृष्ण, क्या यह अर्थ समर्थ है? हाँ
भगवन्। 9. कोडुबियपुरिसा-हे कौटुम्बिक पुरुषों। 10. सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं से जहेयं तुब्भे वयह-हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा
वह ऐसा ही है जैसा आप कहते हो। 11. आलित्ते ण भंते! जाव धम्ममाइक्खिउं-हे भगवन्! यह संसार जल रहा है यावत् धर्म स्वीकार करना
चाहती हूँ। 12. तं नत्थि णं मोग्गरपाणिजक्खे इह सण्णिहिए, सुव्वत्तं तं एस कट्ठे-निश्चय ही मुद्गरपाणियक्ष यह
नहीं है, यह तो मात्र काष्ठ का पुतला है। 13. किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए-विपुल अर्थ ग्रहण करने से जो फल होता उसका तो
कहना ही क्या?