________________
{ 186
[अंतगडदसासूत्र पुरिसक्कार-परक्कमे = जब तक शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम है, सद्धाधिईसंवेगे वा = (मन में) श्रद्धा, धैर्य एवं वैराग्य है, ताव मे सेयं कल्लं जाव = तब तक मुझे योग्य है कि कल, जलंते अज्जचंदणं अज्जं आपुच्छित्ता = सूर्योदय के पश्चात् आर्यचंदना आर्या को पूछकर, अज्जचंदणाए अज्जाए अब्भणुण्णायाए समाणीए = आर्या चन्दना की आज्ञा प्राप्त होने पर, संलेहणा झूसणाझूसियाए = संलेखना झूसणा को सेवन करती हुई, भत्तपाणपडियाइक्खियाए = भक्तपान का त्याग करके, कालं अणवकंखमाणीए = मृत्यु को नहीं चाहती हुई, विहरित्तए त्तिकट्ट = विचरण करूँ, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता = यह विचार किया, करके, कल्लं जेणेव अज्जचंदणा = सूर्योदय होते ही जहाँ पर आर्यचंदना, अज्जा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता = आर्या थी वहाँ पर आई और आकर, अज्जचंदणं अज्जं वंदइ नमसइ = आर्यचंदना आर्या को वंदना-नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- = वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-, “इच्छामि णं अज्जाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णायाए समाणीए = “हे आर्ये ! आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं, संलेहणा जाव विहरित्तए" = संलेखना करती हुई विचरण करना चाहती हूँ।” (तब आर्यचंदना आर्या ने कहा-) “अहासुहं देवाणुप्पिया ! = हे देवानुप्रिये! जिस प्रकार सुख हो वैसे करो । मा पडिबंधं करेह' = सत्कार्य साधन में विलम्ब मत करो।"
तओ काली अज्जा अज्जचंदणाए = तब काली आर्या आर्यचंदना, अज्जाए अब्भणुण्णाया समाणी = आर्या से आज्ञा प्राप्त होने पर, संलेहणाझूसणा = संलेखना झूसणा, झूसिया जाव विहरइ = करती हुई यावत् विचरण करने लगी। सा काली अज्जा अज्जचंदणाए = उस काली आर्या ने आर्यचंदना, अज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाई = आर्या के पास सामायिकादि, एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई = ग्यारह अंगों का अध्ययन करके पूरे, अट्ठ संवच्छराइं सामण्ण-परियागं पाउणित्ता = आठ वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता = एक मास की संलेखना से आत्मा को झूषित करके, सटैि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता = साठ भक्त का अनशन पूर्णकर, जस्सट्टाए कीरइ = जिस हेतु से संयम ग्रहण किया, नग्गभावेजाव = अपरिग्रह भाव से यावत्, चरिमुस्सासणी सासेहिं = उसको अन्तिम श्वासोच्छ्वास से पूर्णकर, सिद्धा = सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गई।।7।।
भावार्थ-फिर एक दिन रात्रि के पिछले पहर में काली आर्या के हृदय में स्कन्दक मुनि के समान इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ-“इस कठोर तप साधना के कारण मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है तथापि जब तक मेरे इस शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम है, मन में श्रद्धा, धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिए उचित है कि कल सूर्योदय होने के पश्चात् आर्य चन्दना आर्या को पूछकर उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर संलेखना झूषणा का सेवन करती हुई भक्तपान का त्याग करके मृत्यु को नहीं चाहती हुई विचरण
करूँ।"