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[अंतगडदसासूत्र
संलेखनया आत्मानंजोषयति, त्रिंशद भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्त्वा यस्यार्थाय
क्रियते यावत् सिद्धः ।।18 ।। अन्वयार्थ-तए णं समणे भगवं महावीरे = फिर श्रमण भगवान महावीर ने, अण्णया कयाई रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ = अन्य किसी दिन राजगृह नगर से विहार किया, पडिणिक्खमित्ता = विहार कर, बहिं जणवय विहारं विहरइ = बाहर जनपद देश में विहार करने लगे । तए णं से अज्जुणए अणगारे = तब वह अर्जुन मुनि, तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं = उस उदार श्रेष्ठ, पवित्र भाव से ग्रहण किये, पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवो-कम्मेणं = महालाभकारी विपुल तप से, अप्पाणं भावेमाणे = आत्मा को भावित करते हुए, बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्ण-परियागं पाउणइ = छ: महीने चारित्रव्रत का पालन किया, अद्धमासियाए संलेहणाए = आधे मास की संलेखना से, अप्पाणं झूसेइ, तीसं भत्ताई = आत्मा को जोड़कर तीस भक्त के, अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता = अनशन को पूर्णकर, जस्सट्टाए कीरइ जाव सिद्धे = जिस कार्य के लिए व्रत ग्रहण किया था उसको पूर्णकर यावत सिद्ध हो गये।।18।।
भावार्थ-भगवती सूत्र में जैसे प्रभु महावीर से पूछकर श्री गौतम स्वामी द्वारा भिक्षार्थ जाने का विस्तृत वर्णन किया गया है, वैसा ही अर्जुन माली द्वारा भिक्षार्थ जाने का वर्णन यहाँ समझना चाहिए।
फिर श्रमण भगवान महावीर किसी दिन राजगृह नगर के उस गुणशील उद्यान से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे।
उस महाभाग अर्जुन मुनि ने उस उदर, श्रेष्ठ, पवित्र भाव से ग्रहण किये गये, महालाभकारी, विपुल तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए पूरे छ: महीने मुनि चारित्र धर्म का पालन किया। इसके बाद आधे मास की संलेखना से अपनी आत्मा को जोड़कर तीस भक्त के अनशन को पूर्ण कर जिस कार्य के लिए व्रत ग्रहण किया. उसको पूर्ण कर वे अर्जुन मुनि यावत् सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गये।
॥ इइ तइयमज्झयणं-तृतीय अध्ययन समाप्त ।।
चउत्थमज्झयणं-चतुर्थ अध्ययन
मूल
उक्खेवओ चउत्थस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। तत्थणं सेणिए राया। कासवे नाम गाहावई परिवसइ, जहा मंकाई सोलसवासा परियाओ, विपुले सिद्धे।।4।।