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षष्ठ वर्ग - तृतीय अध्ययन ]
145} इति (मनसि) कृत्वा इममेतद्रूपम्, अभिग्रहमभिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीवं
यावत् विहरति ।।15।। अन्वयार्थ-तए णं से अज्जणए मालागारे = तब वह अर्जन मालाकार, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए = श्रमण भगवान महावीर के पास, धम्मं सोच्चा निसम्म = धर्मोपदेश सुनकर एवं धारणकर, हट्ठतुट्ठ एवं वयासी- = बड़ा प्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला-, सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव = हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रुचि करता हूँ यावत् आपके, अब्भुट्टेमि = चरणों में व्रत लेना चाहता हूँ। अहासुहं देवाणुप्पिया!' = “हे देवानुप्रिय! जैसे सुख हो वैसा करो।” तएणं से अज्जुणए मालागारे = तदनन्तर वह अर्जुनमाली, उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए अवक्कमइ, = ईशान कोण में गया, अवक्कमित्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं = जाकर स्वयं ही पाँचमुट्ठियों का लोंच किया और, करेइ, करित्ता जाव अणगारे = यावत् अनगार हो गये, जाए जाव विहरइ = और संयम-तप से वे विचरने लगे। तए णं से अज्जुणए अणगारे = इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने, जं चेव दिवसं मुंडे जाव पव्वइए = जिस दिन मुंडित हो प्रव्रज्या ग्रहण की, तं चेव दिवसं समणं भगवं = उसी दिन श्रमण भगवान, महावीरं वंदइ नमसइ = महावीर को वंदन-नमस्कार किया । वंदित्ता नमंसित्ता इमं एयारूवं = वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार का, अभिग्गहं उग्गिण्हइ- = अभिग्रह स्वीकार किया-, कप्पड़ मे जावज्जीवाए छठे-छट्टेणं = आज से मैं निरन्तर बेले बेले की, अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं = तपस्या से आजीवन, अप्पाणं भावमाणस्स = आत्मा को भावित करते हुए, विहरित्तए तिकट्ट अयमेवारूवं = विचरूँगा यह मन में सोचकर तथा इस प्रकार के, अभिग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिण्हित्ता = अभिग्रह को लेकर, जावज्जीवाए जाव विहरइ = जीवन भर के लिए यावत् विचरण करने लगे।।15।।
भावार्थ-इधर अर्जुनमाली श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सुनकर एवं धारण कर बड़ा प्रसन्न हुआ और प्रभु महावीर से इस प्रकार बोला-“हे भगवन् ! मैं आप द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, रुचि करता हूँ, यावत् आपके चरणों में व्रत लेना चाहता हूँ।"
प्रभु महावीर-“हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।"
तब उस अर्जुनमाली ने ईशान कोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, लुंचन करके वे अनगार हो गये और संयम व तप से विचरने लगे। अर्जुन माली अब अर्जुन मुनि हो गये।
इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुंडित हो प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन श्रमण भगवान महावीर को वंदना नमस्कार करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-“आज से मैं निरंतर बेले-बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूँगा।'
ऐसा अभिग्रह जीवन भर के लिए स्वीकार कर अर्जुन मुनि विचरने लगे।