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[अंतगडदसासूत्र जाव पव्वइया । = मुंडित हुए यावत् दीक्षा ग्रहण की। अहण्णं अधण्णे अकयपुण्णे = मैं निश्चय ही अधन्य हूँ, अकृत-पुण्य हूँ, रज्जे य जाव अंतेउरे य = इसलिए कि राज्य, अन्त:पुर, माणुस्सएसु य कामभोगेसु = और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में, मुच्छिए = मैं मूर्छित हूँ। नो संचाएमि अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए जाव पव्वइत्तए = पूज्य भगवान अरिष्टनेमि के पास, प्रव्रज्या लेने के लिये नहीं आ रहा हूँ। कण्हाए ! अरहा अरिट्ठणेमी = हे कृष्ण ! (यह सम्बोधन कर) भगवान अरिष्टनेमि ने, कण्हं वासुदेवं एवं वयासी- = कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार कहा-, से नूणं कण्हा ! तव अयम् = अवश्य ही हे कृष्ण ! तुझे, अज्झत्थिए समुप्पण्णे- = यह मानसिक विचार उत्पन्न हुआ है, “धण्णा णं ते जालि जाव पव्वइत्तए । = कि जालि आदि कुमार धन्य हैं, जिन्होंने मुनिव्रत ग्रहण किया है। मैं अधन्य हूँ मुनिव्रत नहीं ले पा रहा हूँ, से नूणं कण्हा ! अयमढे समढे?' = हे कृष्ण! क्या यह बात सही है? 'हंता अत्थि' = श्री कृष्ण ने कहा-हाँ भगवन् ठीक है ।।3।।
भावार्थ-अर्हन्त अरिष्टनेमि के श्री मुख से द्वारिका नगरी के विनाश का कारण जानकर श्रीकृष्ण वासुदेव के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि वे जालि, मयालि, उवयालि, पुरिससेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, दृढ़नेमि और सत्यनेमि प्रभृति कुमार धन्य हैं जो हिरण्यादि संपदा और परिजन छोड़कर यावत् देयभाग देकर, नेमिनाथ प्रभु के पास मुंडित हुए यावत् प्रव्रजित हो गये । मैं अधन्य हूँ, अकृत-पुण्य हूँ इसलिये कि राज्य, अन्त:पुर और मनुष्य सम्बन्धी काम, भोगों में मूर्च्छित हूँ, इन्हें त्यागकर भगवान नेमिनाथ के पास प्रव्रज्या लेने में समर्थ नहीं हूँ।
भगवान नेमिनाथ प्रभु ने अपने ज्ञान बल से कृष्ण वासुदेव के मन में आये इन विचारों को जानकर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-“निश्चय ही हे कृष्ण ! तुम्हारे मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ-“वे जालि, मयालि आदि कुमार धन्य हैं जिन्होंने धन-वैभव एवं स्वजनों को त्यागकर मुनिव्रत ग्रहण किया और मैं अधन्य हँ अकतपुण्य हँ जो राज्य, अन्त:पुर और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में ही गद्ध हैं। मैं प्रभु के पास प्रव्रज्या नहीं ले सकता।
कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे कृष्ण ! क्या यह बात सही है ?” श्री कृष्ण-“हाँ भगवन् ! आपने जो कहा वह सभी यथार्थ है। आप सर्वज्ञ हैं। आप से कोई बात छिपी हुई नहीं है।" सूत्र 4 मूल- "तं नो खलु कण्हा ! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा जण्णं
वासुदेवा चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइस्संति।" से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ न एवं भूयं वा जाव पव्वइस्संति ? कण्हाइ ! अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु कण्हा ! सव्वे वि य णं वासुदेवा