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उत्तर
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[आवश्यक सूत्र निद्रा संबंधी उपर्युक्त अनेक दोष साधु के लगते हैं। अत: यह पाठ साधु प्रतिक्रमण में ही होना
चाहिए, श्रावक प्रतिक्रमण में नहीं। प्रश्न 178. श्रावक भी पौषध आदि अवसरो पर उपर्युक्त अनेक नियमों का पालन करते हैं। अत:
श्रावक प्रतिक्रमण में यह पाटी रहे तो क्या अनुचित है? पहले बताया जा चुका है कि कभी-कभी आराधित किए जाने वाले व्रतों की शैली में “ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है, अवसर आए तब फरसना करके शुद्ध होऊँ।" आदि शब्दावली का प्रयोग हुआ करता है। इस पाटी में ऐसा प्रयोग न होने से स्पष्ट है कि यह पाठ साधु प्रतिक्रमण के
ही योग्य है। प्रश्न 179. तो फिर पौषध में निद्रा संबंधी दोषों की शुद्धि किससे होगी? उत्तर पौषधव्रत के पाँच अतिचारों में पाँचवां अतिचार है-“पोसहस्स सम्म अणणुपालणया"
"उपवासयुक्त पौषध का सम्यक्प्रकार से पालन नहीं किया हो”। ग्यारहवें व्रत की पाटी बोलने से पाँच अतिचारों का शुद्धिकरण होता है, जिसमें पाँचवें अतिचार “सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन न
करने' के अन्तर्गत निद्रा दोष आदि समग्र पौषध सम्बन्धी दोषों का शुद्धीकरण हो जाता है। प्रश्न 180. उससे तो सामान्य शुद्धीकरण होता है, विशेष शुद्धीकरण के लिए अलग से पाटी होनी
चाहिए? उत्तर यदि एक-एक दोष के शुद्धीकरण के लिए अलग-अलग पाटियों की जरूरत रहेगी तो श्रावक
प्रतिक्रमण में पहली, दूसरी, चौथी, पाँचवीं समिति, तीन गुप्ति, रात्रि भोजन-त्याग आदि सम्बन्धी अनेक पाटियाँ साधु प्रतिक्रमण में है वह डालनी पड़ेगी, क्योंकि पौषध में श्रावक भी अपने स्तर से यथायोग्य इन बातों की पालना करता ही है, किन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। अत:
हर दोष के लिए अलग से पाठ की परिकल्पना करना योग्य नहीं है। प्रश्न 181. आवश्यक सूत्र में ये सभी पाटियाँ हैं। श्रावक भी आवश्यक करता ही है, अत: श्रावक
अपने प्रतिक्रमण में क्यों नहीं कहे? आवश्यक सूत्र में वर्तमान काल में उपलब्ध पाठ साधु-जीवन से सम्बन्धित हैं। यदि आवश्यक सूत्र में होने मात्र से इन पाठों को श्रावक प्रतिक्रमण में ग्रहण किया जायेगा तो श्रावक को भी ‘करेमि भंते' में तीन करण तीन योग से सावद्य योगों का त्याग करना होगा, क्योंकि आवश्यक सूत्र में करेमि भंते का जो पाठ है, उसमें 'तिविहं तिविहेणं' का ही उल्लेख है।
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