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________________ परिशिष्ट-4] 209} नित्यक्रम से जुड़ी हुई हैं यानी जो व्रत जीवनपर्यन्त के लिए हैं, उनकी शैली में तथा कभी-कभी पालन किये जाने वाले व्रतों की शैली में कुछ फर्क है। श्रावक के प्रथम आठ व्रत जीवनपर्यन्त के लिए होते हैं तथा अन्तिम चार व्रत कभी-कभी अवसर आने पर आराधित किए जाते हैं। कभीकभी पालन किये जाने वाले पौषध आदि व्रतों में प्राय: इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया गया है कि “ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है पौषध का अवसर आए, पौषध करूँ, तब फरसना करके शुद्ध होऊँ" पौषध व्रत के अतिचार शुद्धि के प्रकरण में तो उपर्युक्त प्रकार का पाठ है, जबकि प्रतिलेखनादोष-निवृत्ति तथा निद्रा-दोष-निवृत्ति आदि श्रमण सूत्र की पाटियों में ऐसा पाठ नहीं है कि ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है 'आदि।' इससे यह स्पष्ट है कि ये पाटियाँ साधुओं के लिए ही हैं क्योंकि ये मुनियों के नित्यक्रम से ही जुड़ी हुई हैं, श्रावकों के नहीं। यदि ये पाटियाँ श्रावकों के लिए होती तो इनमें भी ऐसी मेरी सहहणा प्ररूपणा तो हैं....' ऐसा पाठ होता. किंत ऐसा पाठ नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि ये पाटियाँ श्रावक प्रतिक्रमण में नहीं होनी चाहिए। प्रश्न 177. निद्रा तो सभी श्रावक लेते हैं फिर 'निद्रा-दोष-निवृत्ति' का पाठ श्रावक प्रतिक्रमण में क्यों न हो? उत्तर निद्रा-दोष-निवृत्ति के पाठ की शब्दावली ही यह बतला देती है कि यह पाठ साधु जीवन का है, श्रावक का नहीं। इस पाठ में अधिक देर तक सोने का , मोटे आसन पर सोने का, छींक-जंभाई से होने वाले दोष का, स्त्री विपर्यास का, आहार पानी सम्बन्धी विपर्यास आदि दोषों का प्रतिक्रमण होता है। श्रावक के लिए सोने के समय का कोई नियम शास्त्रकारों ने नहीं फरमाया, किन्तु साधु के लिए निश्चित समय बताया है। श्रावक डनलप के गद्दे पर भी सोता है, पर मुनि सामान्य पतले आसन का ही उपयोग करते हैं। श्रावक दिन रात खुले मुँह बोलता है, किन्तु मुनि मुखवस्त्रिका का उपयोग करते हैं। अत: रात्रि में छींक-जंभाई आदि के अवसर पर अनुपयोग से मुखवस्त्रिका ऊँची नीची हो जाए तो खुले मुँह से वायु निकलने से हिंसा का दोष लग सकता है। श्रावक के लिये स्त्री को पास में रखकर शयन करने का निषेध नहीं है, किन्तु साधु तीन करण तीन योग से ब्रह्मचर्य का आराधक होता है। अत: स्वप्न में भी यदि स्त्री सम्बन्धी विपर्यास हो तो उसे दोष लग सकता है। अनेक श्रावक रात्रि को आहार करते हैं, किन्तु मुनि रात्रि भोजन के सर्वथा त्यागी होते हैं। अत: स्वप्न में भी आहार ग्रहण कर ले तो रात्रिभोजन सम्बन्धी दोष लग सकता है। उत्तर
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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