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असहज का मुख्य गुनहगार कौन ?
‘इफेक्ट' अपने आप सहज रूप से होता ही रहता है लेकिन हम उसे आधार दे देते हैं कि ‘मैं कर रहा हूँ', वह भ्रांति है और वहीं 'कॉज़ेज़' हैं।
प्रश्नकर्ता : उस 'कॉज़' का कॉज़ क्या है ?
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दादाश्री : अज्ञानता। 'रूट कॉज़' अज्ञानता है । 'ज्ञानी पुरुष' अज्ञानता दूर कर देते हैं 1
ज्ञाता-दृष्टा रहने से बनता है सहज
सहज प्रकृति अर्थात् जिस प्रकार से लपेटा हो उसी प्रकार से घूमती रहती है और अन्य कोई झंझट नहीं ।
ज्ञान दशा की सहजता में तो, अगर आत्मा इसका ज्ञाता-दृष्टा रहेगा तो ही वह सहज होगा और यदि उसमें दखल करे तो फिर से बिगड़ेगा । 'ऐसा हो तो अच्छा, ऐसा न हो तो अच्छा' । इस तरह दखल करने से असहज हो जाता है ।
शुद्धात्मा के अलावा कौन सा भाग रहा ? प्रकृति रही। वह गुनहगार है। प्रकृति जो कुछ भी करे, उसमें यदि हम कहें 'तू जोश से करना', तो ऐसा भी नहीं कहना चाहिए और 'मत करना' वैसा भी नहीं कहना चाहिए। हमें ज्ञाता - दृष्टा रहना है, तो 'व्यवस्थित ' है ।
खेंच - चिढ़- राग, बनाते हैं असहज
दोनों रमणता चलती रहे, उसे सहजता कहते हैं । और भीतर ऐसे खींचते रहे कि यह नहीं ही होगा और खींचना अर्थात् भीतर खींचना, ब्रेक मारना कि हम से यह नहीं होगा यानी सबकुछ असहज हो गया। अगर वहाँ पर खींचेगे नहीं तो सब ठीक हो जाएगा, काम हो जाएगा । अब यह भी ऐसा नहीं है कि इसकी ज़रूरत है, ऐसा कुछ नहीं है । यह तो सहज होने तक ही है । अगर पूछे, क्यों असहज हुए थे ? तब कहेंगे, 'इसकी चिढ़ थी' । ऐसा होता होगा ? उसकी चिढ़ घुस गई । उस चिढ़ को निकाले बगैर सहज नहीं हो सकते और राग को भी निकाले बगैर सहज नहीं हो सकते।
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