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का दखल नहीं रहा, सहज रूप से रहा तो वे पिछले संयोग छूटते जाएँगे। महात्माओं को पाँच आज्ञा का पुरुषार्थ ही सहज बनाएगा। सहजता खुद की है और संयोग पर हैं और पराधीन हैं। ___महात्माओं को अभी देखने का पुरुषार्थ करना पड़ता है। वे देखने के कार्य में लगे हैं, ऐसा कहते हैं। देखने का वह कार्य सहज रूप से होना चाहिए। अभी जो देखने वाला रहता है, उसे भी जानने वाला उसके ऊपर है। अंतिम ऊपरी को देखना नहीं पड़ता, उसे सहज ही दिखाई देता है। बीच का उपयोग प्रज्ञा शक्ति का है, उसे भी देखने वाला जो है वह मूल स्वरूप है। जैसे आईने में दिखाई देता है, आईने को देखना नहीं पड़ता, सहज स्वभाव से झलकता है।
महात्माओं को मोक्ष में जाने की इच्छा हुई इसलिए यह संसार भाव टूट गया, अपने आप ही। जैसे कि अहमदाबाद की तरफ आगे चले तो मुंबई अपने आप ही छूट जाएगा। यदि भाव त्याग बरते तो उसके परिणाम में भरा हुआ माल खाली हो ही जाएगा! यही अक्रम विज्ञान है! भरा हुआ माल अपने आप ही खाली हो जाएगा, निकालना नहीं पड़ेगा। [10] 'सहज' को निहारने से, प्रकट होती है सहजता
आत्मा सहज है, अब पुद्गल को सहज करो लेकिन वह किस तरह से सहज होगा? सहजात्म स्वरूप ज्ञानी को देखने से, उनकी सहज क्रियाओं को देखने से सहज हो सकते हैं। यदि कोई गाली दे रहा हो
और उस समय यदि ज्ञानी की सहजता देखने को मिले तो खुद में तुरंत ही वैसी सहजता आ जाती है। ज्ञानी को देखने की दृष्टि और उनके प्रति अहो भाव रहा तो वैसे गुण खुद में प्रकट हो जाते हैं। जैसे कि यदि किसी को जेब काटने में एक्सपर्ट बनाना हो तो उसके उस्ताद के पास छः महीने के लिए छोड़ दें तो वह एक्सपर्ट बन जाता है। कॉलेज में पढ़ने से नहीं बनता। डॉक्टर के लिए भी तीन साल तक एक्सपर्ट डॉक्टर के अन्डर में इन्टर्नशिप करवाते हैं, तब जाकर सर्टिफाइड डॉक्टर बनता है। ठीक वैसे ही यदि ज्ञानीपुरुष के पास रहकर, उनका राजीपा (गुरुजनों
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