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दादाजी को बरतती है। इस जन्म में वहाँ तक पहुँचना है। अंत में देह को भी सहज करना है।
[9] नहीं करना कुछ, केवल जानना है
सहजता अर्थात् अप्रयत्न दशा। प्रयास करने वाला खत्म हो गया उसके बाद आत्मा (प्रज्ञा) जानता रहता है और मन-वचन-काया करते रहते हैं। पूर्व में 'मैं कर्ता हूँ' उस भान से असहजता थी। अब, 'मैं कर्ता नहीं हूँ' उस भान से अप्रयत्न दशा शुरू हो गई और वह प्रयास करने वाला, दखल करने वाला ही खत्म हो गया है, उसके बाद केवल जानपना ही रहता है। मन-वचन-काया काम करने वाले हैं, लेकिन प्रयास करने वाले की गैरहाज़िरी से, वह सहज दशा है। क्रिया में हर्ज नहीं है, प्रयास करने वाला बनने में हर्ज है, तब तक वह असहज दशा है।
मन-वचन-काया और अंत:करण व्यवस्थित के अधीन डिस्चार्ज होते रहेंगे। उनके कार्य में कोई चेन्ज नहीं होने वाला, यदि प्रयास करने वाला नहीं हो तो। प्रयास करने से दखल होता है। खुद कुछ नहीं कर सकता। जो हो रहा है उसमें रोंग बिलीफ से 'मैं करता हूँ' मानता है, दखल करता है और यदि प्रयास करने की रोंग बिलीफ छूट जाए, ज्ञान हाज़िर रहे तो फिर अप्रयास दशा रहेगी। जो सहज हो गया वह दादाश्री की स्थिति में पहुँच गया। ___सहज दशा में जो अंतराय आते हैं उन्हें रोकना नहीं है, उन्हें देखना है। हटाने में तो हटाने वाला चाहिए और संयोगों को हटाना, वह गुनाह है क्योंकि काल के पकने पर उसका खुद ही वियोग हो जाएगा। संयोग वियोगी स्वभाव के हैं इसलिए संयोगों को देखने का पुरुषार्थ करना है।
स्वाभाविक दशा में आने के लिए खुद को क्या करना है? दादाश्री कहते हैं कि विभाविक पुरुषार्थ करने से नहीं होता। नासमझ व्यक्ति खुद पुरुषार्थ करके समझदार नहीं बनेगा। उसे तो समझदार की शरण में जाकर कहना पड़ेगा कि कृपा करो, तो उसमें परिवर्तन होगा।
खुद के दखल की वजह से नए संयोग उत्पन्न होते हैं। यदि खुद
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