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[10.8] भगवान के बारे में मौलिक समझ
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दादाश्री : हाँ, अगर सनातन सुख चाहिए तो तू यहाँ पर आ। भौतिक सुखों के लिए यह सब क्या करना? ___परवशता तो मुझे बहुत कचोटती थी और उसमें भी मुझे भगवान के वश रहना तो बहुत ही कचोटता था। यह पराया इंसान, न लेना, न देना। अगर बड़े भाई होते तो शायद हम समझते कि कमाकर ला रहा है बेचारा और हमें खिला रहा है इसलिए ऊपरी है तो उसके वश में रहते। भाभी के वश में रहते कि खाना बनाकर खिलाती हैं, लेकिन इनसे न तो लेना है न देना और बेकार ही इनके वश में रहें ? इसलिए मुझे खटकता रहता था और जब मैंने ढूँढ निकाला तभी छोड़ा।
ऊपरी ही उपाधि है बचपन में अगर कोई मुझसे आगे बढ़ जाता उसके साथ बैठना मुझे अच्छा नहीं लगता था, हीनता महसूस होती थी, वहाँ अच्छा नहीं लगता था। वह बातें करता तो मुझे अपने आपमें हीनता का अनुभव होता है इसलिए मैं वहाँ से खिसक जाता था। मैंने कहा, 'हमें इस दुकान पर नहीं बैठना है। जहाँ अपना नंबर लगे वहाँ बैठना है। अंधों में काणा राजा'।
प्रश्नकर्ता : बचपन में ऐसा था?
दादाश्री : और क्या? यह अच्छा नहीं लगता था। यह मुझसे आगे बढ़ गया,' वह अच्छा नहीं लगता था।
यही झंझट आगे ही आगे आती रहती है। ऊपरी (बॉस) नहीं चाहिए। ऐसा नहीं चाहिए। कितनी ही परेशानी ! तुझे अच्छा लगता है ?
प्रश्नकर्ता : मुझे तो अच्छा लगता है, दादा। दादाश्री : ऐसा? भगवान की भक्ति करके उनके जैसा बन जाएगा अतः भगवान को ऊपरी के तौर पर स्वीकार नहीं करता था।