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________________ 422 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) अंत में भगवान को ढूँढ निकाला तो ढूँढ ही निकाला, लेकिन भगवान की इतनी अच्छी भक्ति की कि भगवान पूरे ही मेरे वश में हो गए हैं ! यों ही प्रकाश हो गया है। कभी सोचा नहीं था वैसा। मैं अपना डेवेलपमेन्ट (उपादान) लेकर आया हूँ। अनंत जन्मों की इच्छाएँ इस जन्म में फलीभूत हुईं। पहले तो मुझे वह नहीं चाहिए था जो मुझे डाँटे। भगवान भी यदि डाँटता तो मुझे वह दुनिया भी नहीं चाहिए और सच में पूछो तो पूरी जिंदगी में अभी तक किसी ने मुझे डाँटा नहीं है। 'अब डाँटने वाले को छूट है। अब जिसे डाँटना हो, उसे। अब आपकी बारी है। ___मैंने पूरी लाइफ रिसर्च में ही बिताई है, रिसर्च ही की है इसलिए मुझे भगवान मिले और द वर्ल्ड इस द पज़ल इटसेल्फ, इटसेल्फ पज़ल बन चुका है। गॉड हैज़ नॉट क्रिएटेड, ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है यह। सभी संयोग साइन्टिफिक हैं, उन्हीं से सब कार्य होते जाते हैं। भगवान हमारा खुद का ही स्वरूप है, वह कुछ भी भौतिक चीज़ नहीं देता भगवान से कहा, 'तू मेरा स्वरूप है, ऊपरी कैसा?' 'मेरा खुद का ही स्वरूप है' इस चीज़ का भान नहीं है इसलिए लोग उन्हें अपना ऊपरी बताते हैं। खुद लालची हैं, इसलिए। उनसे कुछ लेना है, लेकिन नहीं मिलेगा उनके पास। है ही नहीं, तो क्या देगा यों बेकार ही? हाँ तुझे यदि भौतिक सुख वगैरह चाहिए, तो तेरे पास जो है वह इन लोगों को दे तो तुझे बेहिसाब भौतिक सुख मिलेगा और अगर दुःख देगा तो दुःख मिलेगा। बाकी, तुझे इन सब का सार मिलेगा, बीच में भगवान की ज़रूरत नहीं है। उन्हें क्यों दलाल बनाता है तू? और भगवान तो कहते हैं कि, 'जब तुझे सनातन सुख चाहिए तब मेरे पास आना, मैं इन सुखों के लिए नहीं हूँ'। आपको कौन सा सुख चाहिए? प्रश्नकर्ता : सनातन सुख।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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