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ज्ञानी पुरुष (भाग - 1)
होता है। गिन्नी की जाँच एक ही बार करनी पड़ती है। रोज़ नहीं घिसना होता ।
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बचपन में इस बारे में ज्ञान मिला, उसके बाद पहचान लिया । तब फिर मैंने सोचा, 'कल्याण हो गया अपना ! लुटे तो लुटे लेकिन चोर तो दिखा'। फिर हम जहाँ कहीं भी ऐसा देखते तो तुरंत वहाँ जाना बंद, जिंदगी भर । यानी धोखा खाने से कोई नुकसान नहीं हुआ । ‘धोखा खाना मतलब बड़े से बड़ा ज्ञान सीखना', ऐसा कहा जाता है। देखो न! क्या हम फिर से कभी धोखा खाएँगे ? अब इशारे से ही समझ जाता हूँ। मेरी उपस्थिति में मुंबई में कई लोग बैठ गए थे। मुझे आता हुआ देखते तो वो दो-तीन लोग सीधे बनकर बैठ जाते थे। मैं जाता था, खड़ा भी रहता था, वे समझते थे कि अभी फँसेंगे लेकिन वहाँ से खिसक जाता था । खड़ा ज़रूर रहता था। उनमें ज़रा लालच घुसने देता था, फिर खिसक जाता था क्योंकि निष्कर्ष आ गया था मेरे
पास ।
प्रश्नकर्ता: वे धोखा खा जाते थे ।
दादाश्री : हाँ, धोखा खा जाते थे... देखो न, कैसा हिसाब !
दूसरों के खेतों में से चोरी करके खाते थे, लेकिन फिर किया पछतावा
प्रश्नकर्ता : ऐसी कुछ गलतियाँ की थीं कि जिन पर खूब पछतावा हुआ हो ?
दादाश्री : मैं ग्यारह साल का था, तब एक लड़के के घर पर आम थे तो उसके पिता जी को पता न चले, उस तरह वह दूसरी मंज़िल से फेंकता था और मैं पकड़ लेता था । वह सब अभी भी मुझे दिखाई देता है। वह क्या कहता था कि 'आप पकड़ना, मैं फेंकूँगा फिर ये आम हम बगीचे में ले जाकर खाएँगे ' । मैं उसके घर के बाहर खड़ा था तब उसने फेंके। वह रोज़ ऐसा करता था, जब माँ - बाप नहीं होते थे तब, वह सब हमें दिखाई देता है।