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[4] नासमझी में गलतियाँ
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तो अस्सी साल की उम्र में भी मौज-मज़े की जगह पर धोखा खा जाते हैं। उसके बजाय पहले से ही धोखा खा लें तो अच्छा। अनुभव किया हो तो फिर धोखा तो नहीं खाएगा न!
प्रश्नकर्ता : नहीं खाएगा।
दादाश्री : तो पहले उसने दिखाया, दो-तीन बार, तो हम तो ठहरे भोले-भाले इंसान और गाँव के लोग। मैंने समझा कि यह सब तो मुझे
आ गया लेकिन उस तीन पत्ती वाले ने ठग लिया। मैं जो चौदह-पंद्रह रुपए ले गया था वे सभी ले लिए। फिर जिंदगी में नियम बना लिया कि फिर से कभी भी ऐसा काम नहीं करना है।
फिर, घर पर तो नहीं बता सकते थे कि इस तरह से पैसे खर्च कर दिए सारे। बाद में धीरे-धीरे जैसे-तैसे करके दे दिए थे। बताने पर ही कोई मुझे देता न! तो ये सारी परेशानियाँ थी!
प्रश्नकर्ता : झूठ बोलना पड़ा।
दादाश्री : हाँ, बोलना पड़ा। उसके बजाय तो वह सारी झंझट ही नहीं होनी चाहिए न! कुछ-कुछ, दो-दो रुपए इकट्ठे होते और दे देते थे।
धोखा खाकर मिला है ज्ञान, इसीलिए फिर नहीं होने दी
भूल प्रश्नकर्ता : फिर तब से आपने कसम खाई कि अब कभी भी इस तरह ताश नहीं खेलना है।
दादाश्री : हाँ, कसम खा ली न! बेकार ही दुःखदायी काम क्यों करें हम? और तभी से हमें यह शिक्षा मिली कि अब इन लोगों के पास खड़े भी नहीं रहना है। सब को ऐसा लगता है कि इसमें कुछ मिलेगा। अरे! भाई ऐसा कहीं होता है ? क्या लोग आपके फायदे के लिए बैठाते हैं यहाँ पर? इसके बाद तो जो जागृति आ गई, फिर उससे तो वापस इस तरह धोखा नहीं खाया। एक ही बार कुछ देख लेना