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[3] उस ज़माने में किए मौज-मज़े
आम थे वे सारे! रत्नागिरी हाफूस होते थे, वे बहुत मीठे होते थे और मिठास में अलग ही तरह के, मिठास का ही गुण रहता था। लेकिन अपने यहाँ देशी आम होते थे न? वे आम भी स्वाद में बहुत अच्छे लगते थे।
असल स्वाद को नहीं पहचानते आज के लोग
यह खरबूजे वाली बेचने आई थी न, तो मैंने पूरा ही ठेला देख लिया लेकिन एक भी खरबूजा मुझे अच्छा नहीं लगा क्योंकि मैं पुराने ज़माने का इंसान, खरबूजे को पहचान ने वाला इंसान कि यह मीठा है, यह फलाना ऐसा है, इसकी छाल ऐसी होनी चाहिए, ऐसी सुगंध आनी चाहिए! मैंने कहा, 'इन खरबूजों को कोई लेता है?' तब उसने कहा, 'अरे! चाचा, अभी एक घंटे में सभी बिक जाएँगे'। तब मैंने कहा, 'कैसे?' तो लोग बिल्कुल नासमझ हो गए है! उन्हें भान ही नहीं है कि सही माल कौन सा है! समझते ही नहीं हैं। 'मुझे तो तेरा एक भी खरबूजा अच्छा नहीं लगा। मैंने तुझे रोका, इसलिए ये चार आने ले जा लेकिन मुझे खरबूजा नहीं चाहिए' तब उस बेचारी ने मना किया। वह खानदानी थी न!
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : तो उसके बाद मुझे समझ में आया। लोगों को मिठास लगती है लेकिन मुझे क्यों मिठास नहीं लगती, इस भोजन में? ये सब्जी वगैरह सब में मिठास क्यों नहीं लगती?
प्रश्नकर्ता : तो क्या पता चला?
दादाश्री : ये लोग जो खाते हैं न, उन्होंने वह स्वाद चखा ही नहीं है न! जैसे कि इंसान ने अगर भीड़ ही देखी हो तो उसे तो इस भीड़ में भी बहुत एकांत जैसा लगेगा। गाड़ी में खूब भीड़ हो, फिर भी मज़ा ही रहेगा, उसे भीड़ जैसा लगेगा ही नहीं और जिसने आराम देखा हो या जिसने कम भीड़ देखी हो, उसे तो वह भीड़ ही लगेगी।
प्रश्नकर्ता : ठीक है।