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________________ २६० आप्तवाणी-१४ (भाग-१) दादाश्री : जब तक संसारी आत्मा है, तब तक इन सभी संसारी चीज़ों को देखता है और संसारी न हो अर्थात् रिलेटिव न हो, रियल हो तब वह आत्मा, आत्मा को देखता है, अविनाशी चीज़ों को ही देखता है। ___ आत्मा और अनात्मा, ज्ञानी पुरुष स्पष्ट रूप से अलग कर देते हैं। फिर हम पहचान सकते हैं कि यह आत्मा है और यह अनात्मा है। यह तत्त्व स्वरूप है और यह अवस्था स्वरूप है, ऐसा स्पष्ट रूप से पहचान सकते हैं। ज्ञान मिलने के बाद शायद अगर ज्ञान कहीं पर ज्ञेय में चिपक जाए तो भी तत्त्व दृष्टि से ऐसा लगता है कि यह तो चंदूभाई का है, मेरा नहीं है। तत्त्व अनंत अवस्था वाला होता है, अवस्थाओं के एलिया (हेरियां) (किसी सूराख में से आने वाली सूर्य की किरणें) पड़ते हैं। उस तरह से जैसे सूर्यनारायण बादल के पीछे होते हैं, फिर भी उनकी अवस्था की किरणें बाहर आती हैं। किसी को भी जब हम अवस्था दृष्टि से देखते हैं, तभी तो हम पर उसका प्रभाव पड़ता है। अवस्था दृष्टि से ही आकर्षण-विकर्षण है, तत्त्व दृष्टि से नहीं है। अवस्था में 'मैं हूँ', ऐसा माना कि तुरंत ही अंदर लोहचुंबक पना उत्पन्न हो जाता है और आकर्षण शुरू हो जाता है। तत्त्व दृष्टि अर्थात् संपूर्ण दृष्टि। निश्चय दृष्टि अर्थात् तत्त्व और व्यवहार अर्थात् अवस्था। __ अवस्था दृष्टि से देखोगे तो आकर्षण-विकर्षण होगा और तत्त्व दृष्टि से देखोगे तो मोक्ष होगा। किसी को तत्त्व दृष्टि से देखोगे तो आपको लाभ होगा और अवस्था दृष्टि से देखोगे तो आप उसी में खो जाओगे। आँखों से (चर्मचक्षु से) देख-देखकर ही तो यह पूरा जगत् खो गया है। तत्त्व दृष्टि से सामने वाले में आत्मा दिखाई देता है। उस तत्त्व दृष्टि के लिए शास्त्रों में लिखा गया है कि जो उसे तत्त्व दृष्टि से जानेगा कि 'तिल में से तेल निकलता है, दूध में से घी निकलता है', वही वह निकाल सकेगा। भैंस को भैंस देखे, गाय को गाय देखे तो अवस्था दृष्टि है और अपने महात्मा तो तत्त्व दृष्टि से (आत्मा) देखते हैं। जो तत्त्व को जानते
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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