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________________ आप्तवाणी - १४ ( भाग - १ ) कहलाता है और जो अवस्था तक ही सीमित है, क्षणिक वह पर्याय कहलाता है। जो ज्ञान खुद के दोष दिखाता है, वह ज्ञान नहीं बल्कि ज्ञान का पर्याय है। प्रश्नकर्ता : यह जो प्रज्ञा है, क्या उसे पर्याय कहते हैं ? दादाश्री : नहीं ! प्रज्ञा तो अलग ही चीज़ है । वह पर्याय नहीं है । पर्याय तो किसे कहते हैं कि जो आकर तुरंत ही चला जाए, अवस्था बिल्कुल छोटी (कम समय के लिए) होती है । २१२ आत्मा तो ज्ञान स्वरूप है लेकिन उसका प्रकाश उत्पन्न होता है । उसमें जो दिखाई देता है, वे सब अवस्थाएँ हैं । यह देखा, वह देखा, सब देखता रहता है लेकिन उसे देखने के बाद एक खत्म होता है, फिर दूसरा देखता है, तीसरा देखता है । वे अवस्थाएँ कैसी होती हैं ? उत्पन्न होती हैं, कुछ समय तक टिकती हैं, (टिकने का मतलब ध्रुव नहीं है क्योंकि जब अवस्था टिकती है तब उसमें सूक्ष्म रूप से परिवर्तन तो चल ही रहा होता है ।) और वापस लय हो जाती हैं । उत्पन्न होती हैं, कुछ समय तक टिकती हैं और लय हो जाती हैं । और जब लय होती है तब फिर दूसरी अवस्था उत्पन्न होती है। ऐसा निरंतर चलता ही रहेगा, पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) में भी ऐसा ही है। पुद्गल के सभी पर्याय आपको दिखाई देते हैं लेकिन आत्मा के पर्याय आपको बहुत जल्दी समझ में नहीं आएँगे। अभी (विभाविक) आत्मा बाहर यह सब जो देखता है, वे सभी पर्याय हैं। उसके गुण शाश्वत होते हैं, पर्याय टेम्परेरी होते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा के तो अनेक पर्याय होते हैं, असंख्य पर्याय होते हैं ? दादाश्री : आत्मा के असंख्य नहीं, अनंत पर्याय होते हैं। उन्हें गिना ही नहीं जा सकता न ! पर्याय के बिना, नहीं है आत्म अस्तित्व प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा के खुद के जो पर्याय हैं, वे कुछ अलग होते हैं या फिर इस पुद्गल के साथ में ही हो सकते हैं ?
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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