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________________ (१.१२) 'मैं' के सामने जागृति १८३ दादाश्री : (प्रतिष्ठित आत्मा वाला 'मैं') यह प्रतिष्ठा करता रहता है। उसे पोषण देता रहता है। खुद के स्वरूप की मूर्ति गढ़ता है। फिर जाते-जाते वह तुरंत ही दूसरे को जन्म दे देता है। और जो दूसरा है, वह काम करने लग जाता है। प्रश्नकर्ता : तो क्या ऐसा है कि यह एक जन्म तक के लिए ही है या प्रत्येक अवस्था में यह उत्पन्न होता है और उसका एन्ड आता है ? आपने कहा न कि 'प्रतिष्ठा की यानी दूसरे को जन्म दिया और खुद चला गया', तो ऐसा प्रत्येक अवस्था के समय होता है या जिंदगी भर एक ही चलता है? दादाश्री : जिंदगी भर एक ही। प्रश्नकर्ता : एक ही होता है और अगले जन्म के लिए... दादाश्री : वह अलग। फिर वापस वह भी पूरी जिंदगी सिर्फ एक ही। प्रश्नकर्ता : तो आप जो ज्ञान देते हैं तब उस पर असर होता है या किसी और पर? दादाश्री : पुद्गल पर। प्रश्नकर्ता : तो वह जो दूसरे को जन्म देता था, वह खत्म हो जाता है? दादाश्री : खत्म हो जाता है, रोंग बिलीफ खत्म होने पर वह खत्म हो जाता है। रोंग बिलीफ से उत्पन्न होता है। रोंग बिलीफ चली जाने पर उसका उत्पन्न होना बंद हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : अर्थात् इसका अर्थ यह हुआ कि रोंग बिलीफ से 'मैं' जीवित हो जाता है? दादाश्री : रोंग बिलीफ से यह संसार खड़ा है! यानी कि एक 'मैं' नहीं कितने ही 'मैं'।
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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