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________________ ११४ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) त्याग करो या ग्रहण करो, उसे धर्म कहते हैं, रिलेटिव धर्म जबकि रियल धर्म, वह स्वाभाविक धर्म है। उसमें करना नहीं है, वह स्वाभाविक रूप से होता रहता है। आत्मा, आत्मा के स्वभाव में आ गया तो बस हो चुका। अभी विशेष भाव में है। वस्तु को स्वभाव में लाना, उसे कहते हैं मोक्ष। 'उसे ये लोग करने गए हैं, जप करो और तप करो।' अरे भाई, ऐसा क्यों कर रहे हो? उतना तो तू ढूँढ निकाल कि स्वभाव में किस तरह से जा सकते हैं! इस झंझट में कहाँ पड़ गया है? प्रश्नकर्ता : स्वभाव में जाने के लिए कोई भी प्रयत्न करने की ज़रूरत नहीं है? दादाश्री : जानता ही नहीं हो तो कैसे करेगा? वह तो ऐसा ही जानता है कि मुझे कुछ करना पड़ेगा। मैं कुछ करूँ। अरे भाई, तेरे गुरु को नहीं मिला तो तुझे भी नहीं मिलेगा न? वह भी वैसा ही रहा और उसका गुरु भी वैसा ही रहा। इस तरह सब भटकते रहते हो न! लड्डू खाकर पेट पर हाथ फेरते हो और ओहिया करके सो जाते हो। अरे भाई, काम खत्म हो जाने के बाद ओहिया करके सो सकते हैं! जब तक स्वभाव में नहीं आ जाए तब तक स्वाभाविक सुख नहीं मिल सकता। ये सभी विभाविक सुख हैं, इसलिए बेस्वाद लगते हैं। आत्मा का सुख, वह स्वाभाविक सुख है, वही मोक्ष है। (मूल) आत्मा तो भाव भी नहीं करता और अभाव भी नहीं करता। आत्मा स्वभावमय है। अपने-अपने स्वभाव में हैं। सोना सोने के स्वभाव में रहता है। सोना दूसरे गुणधर्म नहीं बताता। उसी प्रकार आत्मा ने भी कभी खुद के गुणधर्म नहीं छोड़े हैं, छोड़ता भी नहीं है और छोड़ेगा भी नहीं। प्रश्नकर्ता : अनादि स्वभाव का मतलब क्या है?
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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