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आप्तवाणी - १४ ( भाग - १)
थे तब अन्य कितनी तरह के भाव उत्पन्न हुए होंगे ? उन तीनों के इकट्ठे होने से कितनी ही तरह के ग्रहण जैसे परिवर्तन हो गए हैं ! वह विशेष भाव कहलाता है। यदि वह सूर्य का गुणधर्म होता तो वैसा ही ग्रहण रोज़ होता। यदि वह चंद्र का गुणधर्म होता तो वैसा ही ग्रहण रोज़ होता। लेकिन इन दोनों के मिलने से यह एक नई ही प्रकार का हुआ। बस ! इसी प्रकार से इन जड़ और चेतन के मिलने से ही नई तरह का उत्पन्न होता है
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सद्गुणों की कीमत नहीं है वहाँ
हमें अपने टट्टू को रेस में नहीं उतारना है । हमें तो अपने टट्टू से मोक्ष में जाने का काम लेना है। तो उसे इस दुनिया के रेसकोर्स में मत
उतारना ।
मोक्षमार्ग में लोग सद्गुण ढूँढते हैं लेकिन वे गुण व्यतिरेक हैं । वे आत्मा के गुण नहीं हैं, वे पौद्गलिक गुण हैं। लोग सद्गुणों को आत्मा गुण मानते हैं। क्रोध - मान-माया - लोभ को भी आत्मा के गुण मानते
हैं।
वह तो दृढ़प्रहारी था न!* दृढ़प्रहारी कहते थे न ? उसने गाय को मार दिया, तो अब वह तो भयंकर निर्दयी था । ब्राह्मण को मार दिया और फिर गर्भवती ब्राह्मणी को मार दिया। ऐसा करते ही व्यतिरेक गुण उत्पन्न होते हैं। दया, इतनी ज़बरदस्त दया, बच्चे को तड़पता हुआ देखा, वह देखते ही दया आई। वह व्यतिरेक गुण कहलाता है । दोनों के मिलने से, तो यह व्यतिरेक गुण कोई सिखाने नहीं गया था वर्ना भयंकर निर्दयी व्यक्ति था । किसी जगह पर दया ही नहीं आती थी ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर व्यतिरेक गुणों के उत्पन्न होने से इतने सारे लोग दुःखी हो गए?
दादाश्री : हुए ही हैं न ! स्वभाव में कोई दुःख है ही नहीं, विभाव में ही निरे दुःख हैं
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*शास्त्रों में उदाहरण है ।