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तब बादशाह आश्चर्यके सागर में बुड गये । और लाखों चिटियाँ देखकर सूरिजी के प्रति सौ गुणी श्रद्धा और बढ गई, अकबरने अपने रेशमीवस्त्रके अंचलसे चिटिर्या दूर करके प्रवेश कराया । और अपनी भुलकी क्षमा मांगी ।
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सूरिजीने सच्चे देव, गुरू और धर्मका संक्षेपमें उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सूरिजीके पांडित्य और चरित्रका बादशाह के हृदयमें बड़ा आदरभाव हुआ । इतना ही नहीं अपने पास पध्मसुंदर नामक साधुका ग्रंथालय था उन पुस्तकों को ग्रहण करने की प्रार्थना की ।
सूरिजीने मना किया मगर बादशाह के बहुत आग्रह करने पर पुस्तके लेकर अकबरके नामसे आगरा में पुस्तकालय की स्थापना कर उन पुस्तकों को वह रख दिया । और सूरिजीनें कहा, हमको जरूरत होगी तब पुस्तकें मँगवायेंगे । सूरिवरका त्याग देखकर बादशाह के मन पर बहुत बडा प्रभाव पडा और आनंदकी खुशीमें उन्होने दान दिया ।
उस समय पर बादशाहनें पूछा, मेरी मीनराशिमें शनैश्चरकी दशा बैठी है। लोग कहते है वह दशा बहुत कष्ट देनेवाली है। तो आप ऐसी कृपा करो जिससे यह दशा मीट जाय ।
सूरिजीनें स्पष्ट शब्दोमें कहा, मेरा यह विषय नहीं है, मेरा विषय धर्मका है, यह ज्योतिषकी बात है ।
बादशाहने कहा, मेरे को ज्योतिषशास्त्रके साथ संबंध नहीं है, आप ऐसा कोई ताविज-मंत्र-यंत्र दो जिससे मुझे इस ग्रह की शान्ति मिले ।
सूरिजीने कहा, वो भी हमारा काम नहीं है। आप सब जीवों पर रहेम नजर कर अभयदान दोगे तो आपका भला होगा । निसर्गका नियम है कि दुसरों की भलाई करनेवालों को अपनी भलाई होती है । यह उपदेश देकर सूरिजी उपाश्रयमें पधारे ।
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