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पारगत अर्थात् शरीरी मानसी सर्व दुःखोका अन्तकर मोक्षमें जावे।
श्री भगवती सूत्र शतक २ उदेशा १ (प्र) हे भगवान् । स्वयं कृत दुःखकों भगवते है।
(उ०) हे गौतम । कोह जीव भोगवे कोह जीव नही मी भोगवे । हे प्रभो इसका क्या कारण है ! हे गौतम जीस जीवोंके उदयमें आया है वह जीव रुत कर्म भोगवते है और जीस जीवोंके जो सतकर्म सत्तामें पडा हुवा है. अबाधा काल पूर्वा परिपक्क नही हुवा है अर्थात उदयमें नहीं आया है वह जीव रुतकर्म नही भो भगवते है इस अपेक्षासे कहा जाते है कि कोइ जीव भोगवे कोह जीव नही भो भोगवे । इसी माफोक नरकादि २४ दंडक भी समझना । जैसे यह एक बचन अपेक्षा समुच्चय जीव और चौवीस दंडक एवं २५ सुत्र कहा है इसी माफीक २५ सूत्र बहु वचन अपेक्षा भी समझना । एवं ५० सुत्र ।
. (प्र०) हे भगवान् । जीव अपने बन्धाहुवा आयुष्य कर्मकों भोगवते है।
(उ०) हां गौतम । जीव स्वयं बान्धा हुवा आयुप्य कर्मकों स्यात् भोगवे स्यात् नही भी भोगवे । हे प्रभो इस्का क्या कारण है ? हे गौतम जीस जीवोंके आयुष्य उदयमें आया है वह भोगरते है और जिस जीवोंके उदयमें नहीं पाया है वह नहीं भोगवते है एवं नरकादि २४ दंडक भी समझना । इसी माफीक बहुवचनके भी २५ सूत्र समझना इति । ... सेवं भंते सेवं भंते तमेव सक्षम् ।
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